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________________ 48] [आवश्यकसूत्र प्रकार की हिंसा न स्वयं करना, न दूसरे से कराना, न करने वालों का अनुमोदन करना, मन से, वचन से और काय से, यह अहिंसा महाव्रत है। इसी प्रकार असत्य, स्तेय, मैथुन एवं परिग्रह आदि के त्याग के सम्बन्ध में भी नव कोटि की प्रतिज्ञा का भाव समझ लेना विशेष ज्ञातव्य प्रस्तुत महाव्रत सूत्र के पश्चात् प्रायः सभी प्राप्त प्रतियों और आवश्यक सूत्र के टीकाग्रन्थों में समिति सूत्र का उल्लेख मिलता है। परन्तु प्राचार्य जिनदास महत्तर ने लिखा है- 'एत्थ केवि अण्णं पि पठन्ति' अर्थात् यहाँ कुछ आचार्य दूसरे पाठ भी पढ़ते हैं। यथा-पांच पाश्रव, पांच संवरद्वार, पांच निर्जराद्वार प्रादि / ' समिति-सूत्र __ सर्वथा जीव हिंसा से निवृत्त मुनि की आवश्यक निर्दोष प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। उत्तम परिणामों की चेष्टा को भी समिति कहते हैं। समिति आगमों का एक सांकेतिक शब्द है / समिति का अर्थ है-विवेक-युक्त होकर प्रवृत्ति करना / समिति पांच प्रकार की है 1. ईर्यासमिति कार्य उत्पन्न होने पर विवेकपूर्वक गमन करना तथा दूसरे जीवों को किसी प्रकार की हानि न हो, इस प्रकार उपयोगपूर्वक चलना ईर्यासमिति है। 2. भाषासमिति आवश्यकता होने पर निर्दोष वचन की प्रवृत्ति करना, अर्थात् हित, मित, सत्य एवं स्पष्ट वचन कहना भाषासमिति है। ___3. एषणासमिति—आहारादि सम्बन्धी बयालीस दोषों को टालकर निर्दोष भिक्षा ग्रहण करना, 5 मण्डल सम्बन्धी दोष टाल कर भोगना एषणासमिति है। 4. प्रादानभाण्डमात्र-निक्षेपणासमिति-वस्त्र, पात्र, पुस्तक आदि उपकरणों को उपयोगपूर्वक ग्रहण करना एवं जीव रहित प्रमाजित भूमि पर निक्षेपण करना-रखना आदान-भाण्ड-मात्रनिक्षेपणासमिति है। 5. पारिष्ठापनिकासमिति-मल, मूत्र, कफ, थूक, नासिकामल आदि या भुक्तशेष भोजन तथा भग्न पात्र आदि परठने योग्य वस्तु जीव रहित एकान्त स्थण्डिल-भूमि में परठना, जीवादि उत्पन्न न हों, एतदर्थ उचित यतनापूर्वक परठना पारिष्ठापनिकासमिति है। जीवनिकाय-सूत्र _ 'जीवनिकाय' शब्द जीव और निकाय इन दो शब्दों से बना है। जीव का अर्थ है----चेतनप्राणी तथा निकाय का अर्थ है—राशि अर्थात् समूह / जीवों की राशि को जीवनिकाय कहते हैं। पृथ्वी, अप, तेज, वाय, वनस्पति और त्रस,ये छह निकाय हैं। इन छह निकायों में अ. समस्त संसारी जीवों का समावेश हो जाता है। प्रस्तुत सूत्र में छहों जीवसमूहों में से किसी को किसी भी प्रकार की प्रमाद-वश पीड़ा पहुंचायी हो तो उसका प्रतिक्रमण किया गया है। 1. “पडिक्कमामि पंचहिं पासवदारेहि-मिच्छत्त-अविरति-पमाद कसायजोगेहिं, पंचहि अणासवदारेहि-... सम्मत्त-विरति-अप्पमाद-अकसापित्त-अजोगित्तेहिं, पंचहि निज्जर-ठाणेहिं, नाण-दसण-चरित्त-तव-संजमेहि / " 2. "भाषासमिति म हितमितासंदिग्धार्थभाषणम् / " ----प्राचार्य हरिभद्र / पद्रों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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