________________ 46] [आवश्यकसूत्र आचार्य जिनदास महत्तर ने आवश्यक चूणि के प्रतिक्रमणाध्ययन में इसी प्रसंग पर एक गाथा उद्धृत की है हिंसाणुरंजितं रौद्रं, अटें कामाणुरंजितं / धम्माणुरंजियं धम्म, सुक्लज्झाणं निरंजणं / अर्थात—काम से अनुरंजित ध्यान आर्त कहलाता है। हिंसा से रंगा हुआ ध्यान रौद्र है, धर्म से अनुरंजित ध्यान धर्मध्यान है और शुक्लध्यान पूर्ण निरंजन होता है। 1. पार्तध्यान--प्राति का अर्थ दुःख, व्यथा, कष्ट या पीड़ा होता है / आति के निमित्त से जो ध्यान होता है, वह प्रार्तध्यान कहलाता है। अनिष्ट वस्तु के संयोग से, इष्ट वस्तु के वियोग से, रोग आदि के कारण तथैव भोगों की लालसा से मन में जो एक प्रकार की विकलता-सी अर्थात् पीड़ासी होती है और जब वह एकाग्रता का रूप धारण करती है तब आर्तध्यान कहलाती है। 2. रौद्रध्यान-हिंसा आदि अत्यन्त क्रूर विचार रखने वाला व्यक्ति रुद्र कहलाता है / रुद्र व्यक्ति के मनोभावों को रोद्रध्यान कहा जाता है / अथवा छेदन, भेदन, दहन, बन्धन, मारण, प्रहरण, दमन, कर्तन आदि के कारण राग-द्वेष का उदय हो और दया न हो ऐसे प्रात्म-परिणाम को रौद्रध्यान कहते हैं।' 3. धर्मध्यान-वीतराग की आज्ञा रूप धर्म से युक्त ध्यान को धर्म्यध्यान कहते हैं / अथवाआगम के पठन, व्रतधारण, बन्ध-मोक्षादि, इन्द्रिय दमन तथा प्राणियों पर दया करने के चिन्तन को धर्मध्यान कहते हैं।' 4. शक्लध्यान-कर्म मल को शोधन करने वाला तथा शोक को दर करने वाला ध्यान शुक्लध्यान है। धर्मध्यान, शुक्लध्यान का साधन है। कहा भी है-'जिसकी इन्द्रियाँ विषय-वासना रहित हों, संकल्प-विकल्पादि दोष युक्त जो तीन योग उनसे रहित महापुरुष के ध्यान को 'शुक्लध्यान' कहते हैं / 1. संछेदनदहन-भजन-मारणश्च, बन्ध-प्रहार-दमनविनिकृन्तनैश्च // रागोदयो भवति येन न चानुकम्पा, ध्यानं तु रौद्रमिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः / / 2. सूत्रार्थसाधनमहाव्रतधारणेषु, बन्धप्रमोक्षगमनागमहेतुचिन्ता / पञ्चेन्द्रियव्युपरमश्व दया च भूते, ध्यानं तु धर्म्यमिति संप्रवदन्ति तज्ज्ञाः / / 3. शोधयत्यष्ट प्रकारं कर्ममलं शुचं वा क्लमयतीति शुक्लम् / .-प्राचार्य नमिः। 4. यस्येन्द्रियाणि विषयेष पराड मुखानि, संकल्पकल्पनविकल्पविकारदोषः / योगैस्तथा त्रिभिरहो ! निभृतान्तरात्मा, ध्यानं तु शुक्लमिदमस्य समादिशन्ति // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org