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________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण भूलों की उपेक्षा करते रहने से तथा विवेक नहीं रखने से उच्चतर श्रेणी के साधक का भी अधःपतन हो सकता है / यही कारण है कि जैन आचारशास्त्र सूक्ष्म भूलों पर भी ध्यान रखने की ओर इंगित करता है। प्रस्तुत सूत्र शयन सम्बन्धी अतिचारों का प्रतिक्रमण करने के लिये है। सोते समय जो भी शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक किसी भी प्रकार की भूल हुई हो, संयम का अतिक्रमण किया हो, किसी भी प्रकार का भाव-विपर्यास हुआ हो, उस सबके लिये पश्चात्ताप करने का -'मिच्छा मि दुक्कडं' देने का विधान प्रस्तुत शय्या-सूत्र में किया गया है। विशिष्ट शब्दों का अर्थ-पगामसिज्जाए-का संस्कृत रूप 'प्रकामशय्या होता है। प्रकामशय्या का अर्थ है-मर्यादा से अधिक सोना। निगामसिज्जाए बार-बार अधिक काल तक सोते रहना, निकामशय्या है। फइए-खांसते हुए / कक्कराइए–'कर्करायित' शब्द का अर्थ है-- कुडकूड़ाना। शय्या विषम हो या कठोर हो तो साध को समता एवं शान्ति के साथ उसका सेवन करना चाहिये / साधक को शय्या के दोष कहते हुए कुड़कुड़ाना-बड़बड़ाना नहीं चाहिये / आमोसे---- प्रमार्जन किए बिना शरीर या अन्य वस्तु का स्पर्श करना / ससरक्खामोसे सचित्त रज से युक्त वस्तु को छूना। आउलमाउलाए-आकुलता-व्याकुलता से, सोवणवत्तियाए–स्वप्न के प्रत्ययनिमित्त से। प्रस्तुत शय्या-सूत्र को, जब भी साधक सोकर उठे, अवश्य पढ़ना चाहिये / इसे निद्रादोषनिवृति का पाठ भी कहा जाता है। यह पाठ पढ़कर बाद में एक लोगस्स अथवा चार लोगस्स का पाठ भी पढ़ना चाहिये। भिक्षादोष-निवृत्ति सूत्र पडिक्कमामि गोयरग्गचरियाए, भिक्खायरियाए उग्घाडकवाड-उग्घ्राडणाए, साणावच्छादारासंघट्टणाए, मंडो-पाहुडियाए, बलिपाहुडियाए, ठवणापाहुडियाए, संकिए, सहसागारे, अणेसणाए, पाणसणाए पाणभोयणाए, बीयभोयणाए, हरियभोयणाए, पच्छाकम्मियाए, पुरेकम्मियाए, अदिट्ठहडाए, दगसंसट्ठहडाए, रयसंसट्ठहडाए, पारिसाइणियाए, पारिट्ठावणियाए, ओहासण-भिक्खाए, जं उग्गमेणं, उप्पायणेसणाए अपरिसुद्धपरिग्गहियं, परिभुत्तं वा जं न परिदृवियं, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं // भावार्थ-गोचरचर्या रूप भिक्षाचर्या में, यदि ज्ञात अथवा अज्ञात किसी भी रूप में जो भी अतिचार-दोष लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ। अर्ध खुले किवाड़ों को खोलना, कुत्ते बछड़े और बच्चों का संघट्टा--स्पर्श करना, मण्डीप्राभृतिक अग्रपिण्ड लेना, बलिप्राभूतिका बलि के लिए तैयार किया हुआ भोजन लेना, अथवा साधु के आने पर बलिकर्म करके दिया हुआ भोजन लेना, स्थापनाप्रतिका-भिक्षुओं को देने के उद्देश्य से अलग रक्खा हुया भोजन लेना, प्राधाकर्म आदि की शंका वाला आहार लेना, सहसाकार-बिना सोचे-विचारे शीघ्रता से आहार लेना, बिना एषणा–छान-बीन किए लेना, पान-भोजन-पानी आदि पीने योग्य वस्तु की एषणा में किसी प्रकार की त्रुटि करना, जिसमें कोई प्राणी हो, ऐसा भोजन लेना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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