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________________ 34] {आवश्यकसूत्र बीजभोजन-बीजों वाला भोजन लेना, हरित-भोजन-सचित्त वनस्पत्ति वाला भोजन, पश्चात्-कर्मसाधु को आहार देने के बाद तदर्थ सचित्त जल से हाथ या पात्रों को धोने आदि के कारण लगने वाला दोष, पुरःकर्म–साधु को आहार देने से पहले सचित्त जल से हाथ या पात्र धोने आदि से लगने वाला दोष, अदृष्टाहृत बिना देखा लाया भोजन लेना, उदकसंसृष्टाहत–सचित्त जल के साथ स्पर्श वाली वस्तु लेना, सचित्त रज से स्पृष्ट वस्तु लेना, पारिशाटनिका-देते समय मार्ग में गिरता-बिखरता हुआ दिया जाने वाला आहार लेना, पारिष्ठापनिका आहार देने के पात्र में पहले से रहे हुए किसी भोजन को डालकर दिया जाने वाला अन्य भोजन लेना, अथवा बिना कारण 'परठनेयोग्य' कालातीत अयोग्य वस्तु ग्रहण करना / बिना कारण माँगकर विशिष्ट वस्तु लेना, उद्गम-प्राधाकर्म प्रादि 16 उद्गम दोषों से युक्त भोजन लेना, उत्पादन-धात्री आदि 16 साधु की तरफ से लगने वाले उत्पादना दोषों सहित आहार लेना / एषणा-ग्रहणैषणा संबंधी शंकित आदि 10 दोषों से सहित आहार लेना। उपर्युक्त दोषों वाला अशुद्ध-साधुमर्यादा के विपरीत आहार-पानी ग्रहण किया हो, ग्रहण किया हुआ भोग लिया हो, किन्तु दूषित जानकर भी परठा न हो, तो मेरा समस्त पाप मिथ्या हो / विवेचन-जैन धर्म अहिंसाप्रधान धर्म है। अहिंसक करुणा का सागर, दया का आगार, सद्भावना का सरोवर, सरसता का स्रोत तथा अनुकम्पा का उत्स होता है। वह प्रत्येक साधना में उपयोग-सावधानी रखता है। तथा साधना की प्रगति के लिए खान-पान, आचार-विचार, आहारविहार की विशुद्धि को बड़ा महत्व देता है / संयमसाधना के लिए मानव जीवन आवश्यक है और जीवन को टिकाये रहने के लिये पाहारपानी का सेवन अनिवार्य है / आहार-पानी प्रारम्भ-समारंभ के विना तैयार नहीं होता और साधु आरंभ समारंभ का त्यागी होता है। ऐसी स्थिति में क्या किया जाए? जैनागमों में इस समस्या का बहुत ही सुन्दर समाधान किया गया है। प्रस्तुत पाठ उसी समाधान का बोधक है। प्रथम तो यह कि साधु भिक्षावृत्ति से जीवननिर्वाह करे और भिक्षावृत्ति में भी निर्दोष आहार ग्रहण करे। उसे जिन दोषों से बचना है, वे दोष इस पाठ में प्रतिपादित किए गए हैं। __ जैन भिक्षु के लिए नवकोटि-परिशुद्ध आहार ग्रहण करने का विधान किया गया है / नवकोटि इस प्रकार हैं-न स्वयं भोजन पकाना, न अपने लिए दूसरों से कहकर पकवाना, न पकाते हुए का अनुमोदन करना / न खद बना-बनाया खरीदना,न अपने लिए दूसरो से खरोदवाना और न खरोदने वाले का अनुमोदन करना। न स्वयं किसी को पीड़ा देना, न दूसरे से पीड़ा दिलवाना और न पीड़ा देने वाले का अनुमोदन करना। इस प्रकार जैन धर्म में बहुत सूक्ष्म अहिंसा की मर्यादा का ध्यान रक्खा गया है। विशिष्ट शब्दों का अर्थ-गोचरचर्या अर्थात् जिस प्रकार गाय वन में एक घास का तिनका जड़ से न उखाड़ कर, ऊपर से ही खाती हुई घूमती---आगे बढ़ जाती है और अपनी क्षुधानिवृत्ति कर लेती है, इसी प्रकार मुनि भी किसी गृहस्थ को पीड़ा न देता हुया थोड़ा-थोड़ा भोजन ग्रहण करके अपनी क्षुधानिवृत्ति करता है। दशवकालिक सूत्र में इसके लिए मधुकर अर्थात् भ्रमर की उपमा दी है। भ्रमर भी फूलों को बिना कुछ हानि पहुँचाए थोड़ा-थोड़ा रस ग्रहण करता हुआ, प्रात्मतृप्ति कर लेता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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