SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [आवश्यकसूत्र पाउलमाउलाए, सोवणवत्तियाए, इत्थी विपरियासियाए' दिद्धिविपरियासियाए, मणविपरियासियाए, पाण-भोयण-विप्परियासियाए, जो मे देवसियो अइयारो कओ, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं / / भावार्थ-मैं शयन संबंधी प्रतिक्रमण करना चा / शयन काल में यदि देर तक सोता होऊँ या बार-बार बहुत काल तक सोता रहा होऊँ, अयतना के साथ एक बार करवट ली हो, या बार-बार करवट बदली हो, हाथ और पैर आदि अंग अयतना से समेटे हों तथा पसारे हों, षट्पदी--- जू आदि क्षुद्र जीवों को कठोर स्पर्श के द्वारा पीड़ा पहुँचाई हो, बिना यतना के अथवा जोर से खासा हो, यह शय्या बड़ी कठोर है, आदि शय्या के दोष कहे हों, अयतना से छींक एवं जंभाई ली हो, बिना पूजे शरीर को खुजलाया हो अथवा किसी भी वस्तु का स्पर्श किया हो, सचित्त रजयुक्त वस्तु का स्पर्श किया हो--(ये सब शयनकालीन जागते समय के अतिचार हैं।) अब सोते समय स्वप्न-अवस्था सम्बन्धी अतिचार कहे जाते हैं- स्वप्न में युद्ध, विवाहादि के अवलोकन से आकुलता-व्याकुलता रही हो, स्वप्न में मन भ्रान्त हुआ हो, स्वप्न में स्त्री के साथ कुशील सेवन किया हो, स्त्री आदि को अनुराग की दृष्टि से देखा हो, मन में विकार आया हो, स्वप्नदशा में रात्रि में आहार-पानी का सेवन किया हो या सेवन करने की इच्छा की हो, इस प्रकार मेरे द्वारा शयन संबंधी जो भी अतिचार किया हो 'तस्स मिच्छा मि दुक्कडं' अर्थात् वह सब मेरा पाप निष्फल हो। विवेचन हमारी आत्मा का प्रत्येक प्रदेश जड़ से आबद्ध-प्रतिबद्ध है / प्रत्येक प्रात्म-प्रदेश पर कर्मकोट के अनन्त पटल लगे हैं और उस कर्म-कालिमा से आत्मा कलुषित बनी हुई है। जब तक कर्म-कालिमा बनी रहेगी, तब तक जन्म-मरण रोग-शोक और संयोग-वियोगादि दुःख भी बने रहेंगे / अनादि काल से ऐसा ही चला आ रहा है। प्रात्म-बद्ध कर्म-कीट को हटाकर आत्मा को निर्मल शुद्ध बनाने से हो दुःख-परम्परा नष्ट हो सकती है / 'जलबिन्दुनिपातेन क्रमश: पूर्यते घट:' की उक्ति के अनुसार बूद-बूद से घट भर जाता और पाई-पाई जोड़ते हुए तिजोरी भर जाती है / धर्म-साधना के लिये भी ठीक यही बात है / यद्यपि सभी धर्मप्रवर्तकों एवं प्रचारकों ने अपनी अपनी दृष्टि से धर्मसाधना के लिए अनिवार्य विवेक का विवेचन किया है, फिर भी जितना सूक्ष्म एवं भावपूर्ण विवेचन एवं विश्लेषण जैनागमों में किया गया है वैसा अन्यत्र नहीं। जैन संस्कृति की प्रत्येक क्रिया विवेकमय है / दशवैकालिक सूत्र में कहा है जयं चरे, जयं चिट्ठ, जयमासे, जयं सये। जयं भुजंतो भासतो, पावकम्मं न बंधइ // जो साधक यतना से चलता है, यतना से खड़ा होता है, यतना से बैठता है, यतना से सोता है' यतना से भोजन करता और बोलता है, वह पाप कर्म का बन्ध नहीं करता। . साधारण से साधारण साधक भी छोटी-छोटी साधनाओं पर लक्ष्य देता रहे, विवेक-यतना. को विस्मृत न करे तो एक दिन वह बहुत ऊंचा साधक बन सकता है और इसके विपरीत साधारण-सी 1. स्त्री माधक 'इत्थी विपरियामिश्राए' के स्थान पर 'पूरिसविप्परियासियाए' पढ़ें। - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy