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________________ औपपातिकसूत्र में प्रवृत्ति को रोकना अथवा घ्राणेन्द्रिय को प्राप्त सुगन्ध-दुर्गन्धात्मक विषयों में राग-द्वेष के संचार को रोकना, इस ओर से उदासीन रहना, 4. जिहन्द्रिय-विषय-प्रचार-निरोध-जीभ के विषयों में प्रवृत्ति को रोकना अथवा जिह्वा को प्राप्त स्वादु-अस्वादु रसात्मक विषयों, पदार्थों में राग-द्वेष के संचार को रोना, 4. स्पर्शेन्द्रिय-विषय-प्रचार-निरोध-त्वचा के विषयों में प्रवृत्ति को रोकना अथवा स्पर्शन्द्रिय को प्राप्त सुख-दुःखात्मक, अनुकूल-प्रतिकूल विषयों में राग-द्वेष के संचार को रोकता। यह इन्द्रिय-प्रतिसलीनता का विवेचन है। कषाय-प्रतिसंलीनता- कषाय-प्रतिसंलीनता क्या है-उसके कितने प्रकार हैं ? कषायप्रतिसंलीनता चार प्रकार की बतलाई गई है / वह इस प्रकार है--१. क्रोध के उदय का निरोध को नहीं उठने देना अथवा उदयप्राप्त उठे हुए क्रोध को विफल-प्रभावशून्य बनाना, 2. मान के उदय का निरोध-अहंकार को नहीं उठने देना अथवा उदयप्राप्त अहंकार को विफल-निष्प्रभाव बनाना, 3. माया के उदय का निरोध-माया को उभार में नहीं आने देना अथवा उदयप्राप्त माया को विफल-प्रभावरहित बना देना, 4. लोभ के उदय का निरोध-लोभ को नहीं उभरने देना अथवा उदयप्राप्त लोभ को प्रभावशून्य बना देना। यह कषाय-प्रतिसंलीनता का विवेचन है / विवेचन-कषायों से छूट पाना बहुत कठिन है / कषायों से मुक्त होना मानव के लिए वास्तव में बहुत बड़ी उपलब्धि है। कषाय के कारण ही प्रात्मा स्वभावावस्था से च्युत होकर विभावावस्था में पतित होती है / अतएव ज्ञानी जनों ने "कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव"-कषाय-मुक्ति को ही वस्तुत: मुक्ति कहा है / कषायात्मक वृत्ति से छूटने के लिए साधक को अपना आत्मबल जगाये सतत अध्यवसाययुक्त तथा अभ्यासरत रहना होता है। कषाय-विजय के लिए तत्तद्विपरीत भावनामों का पुनः पुनः अनुचिन्तन भी अध्यवसाय को विशेष शक्ति प्रदान करता है / जैसे क्रोध का विपरीत भाव क्षमा है / क्रोध आने पर मन में क्षमा तथा मैत्री भाव का पुन: पुन: चिन्तन करना, अहंकार उठने पर मृदुता, नम्रता, विनय की पवित्र भावना बारबार मन में जागरित करना, इसी प्रकार माया का भाव उत्पन्न होने पर ऋजुता, सौम्यता की भावना को विपुल प्रश्रय देना तथा लोभ जगने पर अन्तरतम को सन्तोष से अनुप्राणित करना कषायों से बचे रहने में बहत सहायक सिद्ध होता है। योग-प्रतिसंलीनता __ योग-प्रतिसंलीनता क्या है-कितने प्रकार की है ? योग-प्रतिसंलीयनता तीन प्रकार की बतलाई गई है 1. मनोयोग-प्रतिसंलीनता, 2. बाग्योग-प्रतिसंलीनता तथा 3. काययोग-प्रतिसलीनता / मनोयोग-प्रतिसंलीनता क्या है ? अकुशल-अशुभ-दुर्विचारपूर्ण मन का निरोध, मन में बुरे विचारों को आने से रोकना अथवा कुशल-शुभ-सद्विचार पूर्ण मन का प्रवर्तन करना, मन में सद्विचार लाते रहने का अभ्यास करना मनोयोग-प्रतिसंलीनता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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