________________ प्रतिसंलीनता [55 द्वादश प्रतिमाएँ स्वीकार करना, 4. वोरासनिक-वीरासन में स्थित रहना-पृथ्वी पर पैर टिकाकर सिंहासन के सदृश बैठने की स्थिति में रहना, उदाहरणार्थ जैसे कोई पुरुष सिंहासन पर बैठा हुआ हो, उसके नीचे से सिंहासन निकाल लेने पर भी वह वैसी ही स्थिति में स्थिर रहे, उस में स्थित रहना, 5. नंषधिक—पुढे टिकाकर या पलाथी लगाकर बैठना, 6. आतापक--सूर्य (धूप) आदि को प्रातापना लेना, 7. अप्रावृतक-देह को कपड़े आदि से नहीं ढंकना, 8. अकण्डूयक-खुजली चलने पर भी देह को नहीं खुजलाना, 9. अनिष्ठीवक थूक आने पर भी नहीं थूकना तथा 10. सर्वगात्र-परिकर्म विभूषा-विप्रमुक्त-देह के सभी संस्कार, सज्जा, विभूषा प्रादि से मुक्त रहना / यह काय-क्लेश का विस्तार है / भगवान् महावीर के श्रमण उक्त रूप में काय-कलेश तप का अनुष्ठान करते थे। विवेचन-काय-क्लेश के अन्तर्गत कहीं कहीं नैष द्यक (नेसज्जिए) के पश्चात् दण्डातिक (दंडायइए) तथा लकुटशायी (लउडसाई) पद और प्राप्त होते हैं। दण्डायतिक का अर्थ दण्ड की तरह सीधा लम्बा होकर स्थित रहना है / लकुटशायो का अर्थ लकुट--बक्र काष्ठ या टेढ़े लक्कड़ की तरह सोना, स्थित रहना है, अर्थात् मस्तक को तथा दोनों पैरों की एड़ियों को जमीन पर टिकाकर, देह के मध्य भाग को ऊपर उठाकर सोना, स्थित होना लकूटशयन है। ऐसा करने से देह वक्र काष्ठ की तरह टेढ़ी हो जाती है। इस तप को सम्भवतः काय-क्लेश नाम इसलिए दिया गया कि बाह्य दृष्टि से देखने पर यह क्लेशकर प्रतीत होता है, जन-साधारण के लिए ऐसा है भी पर प्रात्मरत साधक, जो शरीर को , जो प्रतिक्षण प्रात्माभिरुचि, आत्मपरिष्कार एवं प्रात्ममार्जन में तत्पर रहता है, ऐसा करने में देह-परिताप के बावजूद कष्ट नहीं मानता, उसके परिणामों में इतनी तीव्र आत्मोन्मुखता तथा दृढता होती है। यदि उसे क्लेशात्मक अनुभूति हो तो फिर वह उपक्रम तप नहीं रहता, देह के साथ हल हो जाता है / प्रात्मानुभूति-शून्य हठयोग से विशेष लाभ नहीं होता। प्रतिसंलीनता - प्रतिसंलोनता क्या है-वह कितने प्रकार की है? प्रतिसंलीनता चार प्रकार की बतलाई गई है—१. इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता–इन्द्रियों की चेष्टाओं का निरोध, गोपन, 2. कषायप्रतिसंलीनता-क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारों या आवेगों का निरोध, गोपन, 3. योग प्रतिसंलीनता--कायिक, वाचिक तथा मानसिक प्रवृत्तियों को रोकना, 4. विविक्त-शयनासन-सेवनता-- एकान्त स्थान में निवास करना / इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता-इन्द्रिय-प्रतिसलीनता क्या है-वह कितने प्रकार की है ? इन्द्रियप्रतिसं लीनता पांच प्रकार की बतलाई गई है, जो इस प्रकार है---१. श्रोत्रेन्द्रिय-विषय-प्रचार-निरोध-- कानों के विषय-शब्द में प्रवृत्ति का निरोध-शब्दों को न सुनना अथवा श्रोत्रेन्द्रिय को शब्दरूप में प्राप्त प्रिय-अप्रिय, अनुकल-प्रतिकूल विषयों में राग-द्वेष के संचार को रोकना, उस ओर से उदासीन रहना, 2. चक्षुरिन्द्रिय-विषय-प्रचार-निरोध-नेत्रों के विषय-रूप में प्रवृत्ति को रोकना-रूप नहीं देखना अथवा अनायास दृष्ट प्रिय-अप्रिय, सुन्दर-असुन्दर रूपात्मक विषयों में राग द्वेष के संचार को रोकना, उस ओर से उदासीन रहना, 3. घ्राणेन्द्रिय-विषय-प्रचार-निरोध-नासिका के विषय-गन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org