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________________ 54] [औपपातिकसूत्र भिक्षा ग्रहण करने की प्रतिज्ञा लेना, 20. दृष्ट-लाभ-दिखाई देता या देखा हा आहार लेने की प्रतिज्ञा स्वीकार करना अथवा पूर्व काल में देखे हुए दाता के हाथ से भिक्षा ग्रहण करने की प्रतिज्ञा स्वीकार करना, 21. अदृष्ट-लाभ-पहले नहीं देखा हुआ आहार अथवा पूर्व काल में नहीं देखे हुए दाता द्वारा दिया जाता अाहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा लेना, 22. पृष्ट-लाभ-पूछकर-भिक्षो! आपको क्या दें, यों पूछकर दिया जाने वाला आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा लेना, 23. अपृष्टलाभ-यों पूछे बिना दिया जाने वाला आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा स्वीकार करना, 24. भिक्षालाभ --भिक्षा के सदश---भिक्षा मांगकर लाये हुए जैस! तुच्छ आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा स्वीकार करना, अथवा दाता जो भिक्षा में या मांगकर लाया हो, उसमें से या उस द्वारा तैयार किये हुए भोजन में से आहार लेने की प्रतिज्ञा स्वीकार करना, 25. अभिक्षा-लाभ--भिक्षा-लाभ से विपरीत आहार लेने की प्रतिज्ञा लिए रहना, 26. अन्न-ग्लायक.-रात का ठंडा, बासी ग्राहार लेने को प्रतिज्ञा रखना, 27. उपनिहित---भोजन करते हुए गहस्थ के निकट रखे हुए आहार में से भिक्षा लेने की प्रतिज्ञा करना, 28. परिमितपिण्डपातिक-परिमित या सोमित-ग्रल्प पाहार लेने को प्रतिज्ञा करना, 29. शुद्धषणिक-शंका प्रादि दोष वजित अथवा व्यञ्जन आदि रहित शुद्ध आहार ग्रहण करने को प्रतिज्ञा स्वीकार करना तथा 30. संख्यादत्तिक-पात्र में आहार-क्षेपण की सांख्यिक मर्यादा के अनुकूल भिक्षा लेने की प्रतिज्ञा करना अथवा कड़छो, कटोरी आदि पात्र में डाली जाती भिक्षा की अविच्छिन्न धारा की मर्यादा के अनुसार भिक्षा स्वीकार करने की प्रतिज्ञा लेना। यह भिक्षाचर्या का विस्तार है। भगवान् महावीर के श्रमण यों विविध रूप में बाह्य तप के अनुष्ठान में संलग्न थे। रसपरित्याग क्या है-वह कितने प्रकार का है ? रस-परित्याग अनेक प्रकार का बतलाया गया है, जैसे-- 1. निविकृतिक---घृत, तैल, दूध, दही तथा गुड़-शक्कर (चीनी) से रहित आहार करना, 2. प्रणीतरसपरित्याग-जिससे घृत, दूध, चासनी आदि की बूंदें टपकती हों, ऐसे पाहार का त्याग करना, 3. पायंबिल (आचामाम्ल) रोटी आदि एक ही रूखा-सूखा पदार्थ या भुना हुग्रा अन्न प्रचित पानी में भिगोकर दिन में एक ही बार खाना, 4. प्रायामसिक्थभोजी--पोसामन तथा उसमें स्थित अन्न-कण, सीथ मात्र का आहार करना, 5. परसाहार-रसरहित अथवा हींग, जीरा आदि से बिना छौंका हुआ आहार करना, 6. विरसाहार-बहुत पुराने अन्न से, जो स्वभावतः रस या स्वाद रहित हो गया हो, बना हुआ ग्राहार करना, 7. अन्ताहार-अत्यन्त हलकी किस्म (जाति) के अन्न से बना हुआ पाहार करना, 8. प्रान्ताहार-बहुत हलकी किस्म के अन्न से बना हुआ तथा भोजन कर लेने के बाद बचा-खुचा आहार लेना, 9. रूक्षाहार-रूखा-सूखा पाहार करना। यह रस-परित्याग का विश्लेषण है। भगवान् महावीर के श्रमण यों विविध रूप में रस-परित्याग के अभ्यासी थे। काय-क्लेश क्या है-उसके कितने प्रकार हैं ? काय-क्लेश अनेक प्रकार का कहा गया है, जैसे- 1. स्थानस्थितिक-एक ही तरह से खड़े या एक ही प्रासन से बैठे रहना, 2. उत्कुटुकासनिकउकड़ भासन से बैठना-पुट्ठों को भूमि पर न टिकाते हुए केवल पांवों के बल पर बैठने की स्थिति में स्थिर रहना, साथ ही दोनों हाथों की अंजलि बाँधे रखना, 3. प्रतिमास्थायो-मासिक आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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