________________ गुणसम्पन्न अनगार] [46 कर्म-फल की निश्चितता में आश्वस्त, प्रार्जवप्रधान-सरलतायुक्त, मार्दवप्रधान ---मृदुतायुक्त, लाघवप्रधान--प्रात्मलीनता के कारण किसी भी प्रकार के भार से रहित या स्फूतिशील, क्रियादक्ष, क्षान्तिप्रधान--क्षमाशील, गुप्तिप्रधान-मानसिक, वाचिक तथा कायिक प्रवृत्तियों के गोपक-विवेकपूर्वक उनका उपयोग करने वाले, मुक्तिप्रधान---कामनाओं से छुटे हए या मुक्तता की ओर अग्रसर, विद्याप्रधान ज्ञान को विविध शाखाओं के पारगामी, मन्त्रप्रधान-सत् मन्त्र, चिन्तना या विचारणायुक्त वेदप्रधान-वेद आदि लौकिक, लोकोत्तर शास्त्रों के माता, ब्रह्मचर्यप्रधान, नयप्रधान-नैगम आदि नयों के ज्ञाता, नियमप्रधान-नियमों के पालक, सत्यप्रधान, शौचप्रधान-आत्मिक शुचिता या पवित्रतायुक्त, चारुवर्ण-सुन्दर वर्णयुक्त अथवा उत्तम कोतियुक्त, लज्जा-संयम की विराधना में हृदयसंकोच वाले तथा तपश्री-तप की प्राभा या तप के तेज द्वारा जितेन्द्रिय, शोधि-शुद्ध या प्रकलुषितहृदय, अनिदान-निदानरहित--स्वर्ग तथा अन्यान्य वैभव, समृद्धि, सुख आदि की कामना दिनाः धर्माराधना में संलग्न, अल्पौत्सुक्य-भौगिक उत्सुकता रहित थे / अपनी मनोवृत्तियों को संयम से बाहर नहीं जाने देते थे। अनुपम (उच्च) मनोवृत्तियुक्त थे, श्रमण जीवन के सम्यक निर्वाह में संलग्न थे, दान्त-इन्द्रिय, मन आदि का दमन करने वाले थे, वीतराग प्रभु द्वारा प्रतिपादित प्रवचनधर्मानुशासन, तत्त्वानुशासन को आगे रखकर-प्रमाणभूत मानकर विचरण करते थे। २६-तेसि णं भगवंताणं पायावाया वि विदिता भवंति, परवाया वि विचिता भवंति, पायावावं जमहत्ता नलवणमिव मत्तमातंगा, प्रच्छिद्दपसिणवागरणा, रयणकरंडगसमाणा, कुत्तियावणभूया, परवाइपमहणा, दुवालसंगिणो, समत्तगणिपिडगधरा, सक्खरसण्णिवाइणो, सन्वभासाणुगामिणो, प्रजिणा जिगसंकासा, जिणा इव अवितहं वागरमाणा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरति / २६--वे स्थविर भगवान् श्रात्मवाद--अपने सिद्धांतों के विविध वादों-पक्षों के वेत्ताजानकार थे। वे दूसरों के सिद्धान्तों के भी वेता थे / कमलवन में कोड़ा ग्रादि हेतु पुनः पुनः विचरण करते हाथी की ज्यों वे अपने सिद्धान्तों के पुनः पुनः अभ्यास या आवृत्ति के कारण उनसे सुपरिचित थे। वे अछिद्र-अव्याहत-अखण्डित--- निरन्तर प्रश्नोत्तर करते रहने में सक्षम थे। वे रत्नों की पिटारी के सदृश ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि दिव्य रत्नों से आपूर्ण थे। कुत्रिक-स्वर्गलोक, मर्त्यलोक, पाताललोक में प्राप्त होनेवाली वस्तुओं की हाट के सदश वे अपने लब्धि-वैशिष्ट्य के कारण सभी अभीप्सित-इच्छित अर्थ या प्रयोजन संपादित करने में समर्थ थे। परवादिप्रमर्दन-दूसरों के वादों या सिद्धांतों का युक्तिपूर्वक प्रमर्दन सर्वथा खण्डन करने में सक्षम थे। आचारांग, सूत्रकृतांग आदि बारह अंगों के ज्ञाता थे। समस्त गणि-पिटक-प्राचार्य का पिटक–पेटी-प्रकीर्णक, श्रुतादेश, श्रुतनियुक्ति आदि समस्त जिन-प्रवचन के धारक, अक्षरों के सभी प्रकार के संयोग के जानकार, सब भाषाओं के अनुगामी-ज्ञाता थे। वे जिन सर्वज्ञ न होते हुए भी सर्वज्ञ सदृश थे / वे सर्वज्ञों की तरह अवितथ–यथार्थ, वास्तविक या सत्य प्ररूपणा करते हुए, संयम तथा तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे / गुणसम्पन्न अनगार २७-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतेवासी बहवे अणगारा भगवंतों इरियासमिया, भासासमिया, एसणासमिया, प्रायाणभंड-मत्तनिवखेवणासमिया, उच्चार-पासवण-खेल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org