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________________ 44] [औपपातिकसूत्र सिंघाण-जल्ल-पारिट्ठावणियासमिया, मणगुत्ता, वयगुत्ता, कायगुत्ता, गुत्ता, गुत्तिदिया, गुतबंभयारी, अममा, अकिंचणा, छिण्णग्गंथा,' छिण्णसोया, निरुवलेवा, कंसपाईव मुक्कतोया, संख इव निरंगणा, जीवो विव अपडिहयगई, जच्चकणगं पिद जायरूवा, प्रादरिसफलगा इव पागडभावा, कुम्मो इव गुत्तिदिया, पुक्खरपत्तं व निरुवलेवा, गगणमिव निरालंबणा, अणिलो इव निरालया, चंदो एव सोमलेसा, सूरो इव दिसतेया, सागरो इव गंभीरा, विहग इव सवओ विष्पमुक्का, मंदरो इव अपकंपा, सारयसलिलं इव सुद्धहियया, खम्गिविसाणं इव एगजाया, भारंडपक्खी व अप्पमत्ता, कुंजरो इव सोंडीरा, वसभो इव जायत्थामा, सीहो इव दुद्धरिसा, वसुंधरा इव सव्वफासविसहा, सुययासणो इव तेयसा जलंता। . २७-उस काल, उस समय श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी बहुत से अनगार भगवान-साधु थे। वे ईर्या-गमन, हलन-चलन आदि क्रिया, भाषा, पाहार आदि की गवेषणा, याचना, पात्र आदि के उठाने, इधर-उधर रखने आदि तथा मल, मूत्र, खंखार, नाक आदि का मैल त्यागने में समित -सम्यक् प्रवृत्त-यतनाशील थे। वे मनोगुप्त, वचोगुप्त, कायगुप्त,-मन, वचन तथा ओं का गोपायन-संयम करने वाले, गुप्त-शब्द आदि विषयों में रागरहितअन्तर्मुख, गुप्तेन्द्रिय-इन्द्रियों को उनके विषय-व्यापार में लगाने की उत्सुकता से रहित, गुप्त ब्रह्मचारी-नियमोपनियमपूर्वक ब्रह्मचर्य का संरक्षण-परिपालन करनेवाले, अमम-ममत्वरहित, अकिञ्चन-परिग्रहरहित, छिन्नग्रन्थ----संसार से जोड़ने वाले पदार्थों से विमुक्त, छिन्नस्रोत-लोकप्रवाह में नहीं बहने वाले, निरुपलेप-कर्मबन्ध के लेप से रहित, कांसे के पात्र में जैसे पानी नहीं लगता, उसी प्रकार स्नेह, आसक्ति आदि के लगाव से रहित, शंख के समान निरंगण-राग आदि की रञ्जनात्मकता से शून्य-शंख जैसे सम्मुखीन रंग से अप्रभावित रहता है, उसी प्रकार सम्मुखीन क्रोध, द्वष, राग, प्रेम, प्रशंसा, निन्दा प्रादि से अप्रभावित, जीव के समान अप्रतिहत--प्रतिघात या निरोधरहित गतियुक्त, जात्य-उत्तम जाति के, विशोधित अन्य कुधातुओं से अमिश्रित शुद्ध स्वर्ण के समान जातरूप प्राप्त निर्मल चारित्र्य में उत्कृष्ट भाव से स्थित–निर्दोष चारित्र्य के प्रतिपालक, दर्पणपट्ट के सदश-प्रकटभाव-प्रवंचना, छलना व कपटरहित शुद्धभावयुक्त, कछुए की तरह गुप्तेन्द्रियइन्द्रियों को विषयों से खींच कर निवृत्ति-भाव में संस्थित रखने वाले, कमलपत्र के समान निर्लेप, अाकाश के सदश निरालम्ब-निरपेक्ष, वायु की तरह निरालय- गृहरहित, चन्द्रमा के समान सौम्य लेश्यायुक्त सौम्य, सुकोमल-भाव-संवलित, सूर्य के समान दीप्ततेज-दैहिक तथा आत्मिक तेजयुक्त, समुद्र के समान गम्भीर, पक्षी की तरह सर्वथा विप्रमुक्त-मुक्तपरिकर, अनियतवास-परिवार, परिजन आदि से मुक्त तथा निश्चित निवासरहित, मेरु पर्वत के समान अप्रकम्प–अनुकूल, प्रतिकूल स्थितियों में, परिषहों में अविचल, शरद् ऋतु के जल के समान शुद्ध हृदययुक्त, गेंडे के सींग के समान एकजात--राग आदि विभावों से रहित, एकमात्र प्रात्मनिष्ठ, भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्तप्रमादरहित, जागरूक, हाथी के सदृश शौण्डोर-कषाय प्रादि को जीतने में शक्तिशाली, बलोन्नत, 1. टीका के अनुसार 'अगंथा' पाठ है, जिसका अर्थ है--अपरिग्रह। 2. ऐसी मान्यता है, भारण्ड पक्षी के एक शरीर, दो सिर तथा तीन पैर होते हैं। उसकी दोनों ग्रीवाएं अलग अलग होती हैं। यों वह दो पक्षियों का समन्वित रूप लिये होता है। उसे अपनी जीवन-निर्वाह हेतु खानपान प्रादि क्रियाओं में अत्यन्त प्रमादरहित या जागरूक रहना होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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