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________________ [औषपातिपासून इसका विश्लेषण यों है शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को एक दत्ति अन्न, एक दत्ति पानी, द्वितीया को दो दस्ति अन्न तथा दो दत्ति पानी, इस प्रकार उत्तरोत्तर बढ़ाते हुए पूर्णिमा को पन्द्रह दत्ति अन्न, पन्द्रह दत्ति पानी, कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को चवदह दत्ति अन्न तथा चवदह दत्ति पानी, फिर क्रमश: एक एक घटाते हुए कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को एक दत्ति अन्न, एक दत्ति पानी तथा अमावस्या को उपवास-यह साधनाक्रम है / वज्रमध्यचन्द्र-प्रतिमा कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के दिन इसे प्रारम्भ किया जाता है। चन्द्रमा की कला की हानि-वृद्धि के आधार पर दत्तियों को हानि-वृद्धि से यह प्रतिमा सम्पन्न होती है। प्रारम्भ में कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को 15 दत्ति अन्न और 15 दत्ति पानी ग्रहण करने का विधान है, जो आगे उत्तरोत्तर घटता जाता है, अमावस्या को एक दत्ति रह जाता है। शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को दो दत्ति अन्न, दो दत्ति पानी लिया जाता है। उत्तरोत्तर बढ़ते हुए शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को पन्द्रह पन्द्रह दत्ति हो जाता है और पूर्णमासी की पूर्ण उपवास रहता है। यों इसका बीच का भाग दत्तियों की संख्या की अपेक्षा से पतला या हलका रहता है / वज्र का भाग भी पतला होता है इसलिए इसे वज्र के मध्यभाग से उपमित किया गया है। स्थविरों के गुण २५-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे थेरा भगवंतो जाइसंपण्णा कुलसंपण्णा बलसंपण्णा स्वसंपण्णा विणयसंपण्णा णाणसंपण्णा सणसंपण्णा चरित्तसंपण्णा लज्जासंपण्णा लाघवसंपण्णा प्रोयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी, जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोभा जिइंदिया जियणिद्दा जियपरीसहा जोवियास-मरणभयविप्पमुक्का, वयपहाणा गुणप्पहाणा करणप्प. हाणा चरणप्पहाणा णिग्गहप्पहाणा निच्छयपहाणा प्रज्जवष्पहाणा मद्दवाष्पहाणा लाघवष्पहाणा खंतिष्पहाणा मुसिष्पहाणा विज्जाप्पहाणा मंतष्पहाणा अयप्पहाणा बंभप्पहाणा नयप्पहाणा नियमप्पहाणा सच्चष्पहाणा सोयपहाणा चारुवण्णा लज्जातवस्तीजिइंदिया सोही अणियाणा प्रपोसुया अवहिल्लेसा अप्पडिलेस्सा सुसामण्णरया दंता इणमेव णिगंथं पावयणं पुरओकाउंविहरति / 25 - तब श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी बहुत से स्थविर-ज्ञान तथा चारित्र में वृद्ध–वृद्धि प्राप्त, भगवान्, जाति-सम्पन्न- उत्तम, निर्मल मातृपक्षयुक्त, कुलसम्पन्न-उत्तम, निर्मल पितृपक्षयुक्त, बल-सम्पन्न-उत्तम दैहिक शक्तियुक्त, रूप-सम्पन्न---रूपवान् ---सर्वांगसुन्दर, विनय-सम्पन्न, ज्ञान-सम्पन्न, दर्शन-सम्पन्न, चारित्र-सम्पन्न, लज्जा-सम्पन्न, लाघव-सम्पन्नहलके-भौतिक पदार्थों तथा कषाय आदि के भार से रहित, प्रोजस्वी तेजस्वी, वचस्वी--- प्रशस्तभाषी अथवा वर्चस्वी---वर्चस् या प्रभावयुक्त, यशस्वी, क्रोधजयी, मानजयी, मायाजयी, लोभजयी, इन्द्रियजयी, निद्राजयी, परिषहजयी-कष्टविजेता, जीवन की इच्छा और मृत्यु के भय से रहित, व्रतप्रधान, गुणप्रधान संयम आदि गुणों की विशेषता से युक्त, करणप्रधान आहारविशुद्धि प्रादि की विशेषता सहित, चारित्रप्रधान उत्तमचारित्र सम्पन्न–दविध यतिधर्म से युक्त, निग्रहप्रधान-राग आदि शत्रुओं के निरोधक, निश्चयप्रधान-सत्य तत्त्व के निश्चित विश्वासी या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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