________________ एकरात्रिक भिक्षु, सप्तसप्तमिका भिक्षु, लघुमोक, यवमध्य चन्द्रप्रतिमा [41 एकरात्रिक भिक्षु-प्रतिमा इस प्रतिमा में चौविहार तेला करे / साधक जिन मुद्रा में दोनों पैरों के बीच चार अंगुल का अन्तर रखते हुए, सम-अवस्था में खड़ा रहे / प्रलम्बभुज हो—हाथ लटकते हुए स्थिर हों। नेत्र निनिमेष हों-झपके नहीं / किसी एक पुद्गल पर दृष्टि लगाये, कुछ झुके हुए शरीर से अवस्थित हो आराधना करे / सप्तसप्तमिका भिक्षु-प्रतिमा इसका कालमान 49 दिन का है, जो सात-सात दिन के सात सप्तकों या वर्गों में बँटा हुमा है / पहले सप्तक में पहले दिन एक दत्ति अन्न, एक दत्ति पानी, दूसरे दिन दो दत्ति पत्र, दो दत्ति पानी. यों बढाते हए सातवें दिन सात दत्ति अन्न, सात दत्ति पानी ग्रहण करने का विधान है। शेष छह सप्तकों में इसी की पुनरावृत्ति करनी होती है। ___इसका एक दूसरे प्रकार का भी विधान है / पहले सप्तक में प्रतिदिन एक दत्ति अन्न, एक दत्ति पानी, दूसरे सप्तक में प्रतिदिन दो दत्ति अन्न, दो दत्ति पानी। यों क्रमश: बढ़ाते हुए सातवें सप्तक में सात दत्ति अन्न तथा सात दत्ति पानी ग्रहण करने का विधान है। अष्टमअष्टमिका, नवमनमिका, दशमदशमिका प्रतिमाएं भी इसी प्रकार हैं। अष्टमअष्टमिका में पाठ-आठ दिन के पाठ अष्टक या वर्ग करने होते हैं, नवमनवमिका में नौ-नौ दिन के नौ नवक या वर्ग करने होते हैं, दशमदशमिका में दश-दश दिन के दश दशक या वर्ग करने होते हैं, अन्न तथा पानी की दत्तियों में पूर्वोक्त रीति से आठ तक, नौ तक तथा दश तक वृद्धि की जाती है। इनका क्रमशः 64 दिन, 81 दिन तथा 100 दिन का कालमान है। लघुमोक-प्रतिमा ___ यह प्रस्त्रवण सम्बन्धी अभिग्रह है / द्रव्यत: नियमानुकल हो तो प्रस्रवण की दिन में अप्रतिष्ठापना, क्षेत्रत: गांव आदि से बाहर, कालत: दिन में या रात में, शीतकाल में या ग्रीष्मकाल में / यदि भोजन करके यह प्रतिमा साधी जाती है तो छह दिन के उपवास से समाप्त होती है। बिना खाये साधी जाती है तो सात दिन से पूर्ण होती है। महामोक-प्रतिमा की भी यही विधि है। केवल इतना सा अन्तर है, यदि वह भोजन करके स्वीकार की जाती है तो सात दिन के उपवास से सम्पन्न होती है। यदि बिना भोजन किए स्वीकार की जाती है तो आठ दिन के उपवास से पूर्ण होती है। यवमध्यचन्द्र-प्रतिमा शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से शुरू होकर चन्द्रमा की कला की बद्धि-हानि के आधार पर दत्तियों की वृद्धि-हानि करते हुए इसकी आराधना की जाती है। दोनों पक्षों के पन्द्रह पन्द्रह दिन मिलाकर इसकी आराधना में एक महीना लगता है। शुक्लपक्ष में बढ़ती हुई दत्तियों की संख्या तथा कृष्णपक्ष में घटती हुई दत्तियों की संख्या, मध्य में दोनों ओर से भारी व मोटी होती है। इसलिए इसके मध्य भाग को जौ से उपमित किया गया। जौ का दाना बीच में मोटा होता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org