________________ 40 [औपपातिकसूत्र प्रतिमाधारो साधु को छाया से धूप में, धूप से छाया में जाना नहीं कल्पता किन्तु जिस स्थान में जहाँ वह स्थित है, शीत, ताप आदि जो भी परिषह उत्पन्न हों, उन्हें वह समभाव से सहन करे। ___एकमा सिक भिक्षु प्रतिमा का यह विधिक्रम है। जैसा सूचित किया गया है, एक महीने तक प्रतिमाधारी भिक्षु को एक दिन में एक दत्ति आहार तथा एक दत्ति पानो पर रहना होता है / . दूसरी प्रतिमा में प्रथम प्रतिमा के सब नियमों का पालन किया जाता है। जहाँ पहली प्रतिमा में एक दत्ति अन्न तथा एक दत्ति पानी का विधान है, दूसरी प्रतिमा में दो दत्ति अन्न तथा दो दत्ति पानी का नियम है / पहली प्रतिमा को सम्पूर्ण कर साधक दूसरी प्रतिमा में आता है / एक मास पहली प्रतिमा का तथा एक मास दूसरी प्रतिमा का यों-दूसरी प्रतिमा के सम्पन्न होने तक दो मास हो जाते हैं। प्रागे सातवों प्रतिमा तक यही क्रम रहता है। पहली प्रतिमा में बताये सब नियमों का पालन करना होता है। केवल अन्न तथा पानी की दत्तियों को सात तक वृद्धि होती जाती है। पाठवी प्रतिमा का समय सात दिन-रात का है। इसमें प्रतिमाधारी एकान्तर चोविहार उपवास करता है। गाँव नगर या राजधानी से बाहर निवास करता है। उत्तानक–चित लेटता है। पावशायी--एक पार्श्व या एक पासू से लेटता है या निषद्योपगत--पालथी लगाकर कायोत्सर्ग में बैठा रहता है। इसे प्रथम सप्त-रात्रिदिवा-भिक्षु-प्रतिमा भी कहा जाता है / नौवी प्रतिमा या द्वितीय सप्त-रात्रिदिवा भिक्षप्रतिमा में भी सात दिन-रात तक पूर्ववत् तप करना होता है। साधक उत्कटुक–घुटने खड़े किए हुए हों, मस्तक दोनों घुटनों के बीच में हो, ऐसी स्थिति लिए हुए पंजों के बल बैठे। लगंडशायी--बांकी लकड़ी को लगंड कहा जाता है / लगड को तरह कुब्ज होकर या झुककर मस्तक व पैरों की एड़ी को जमीन से लगाकर पीठ से जमीन को स्पर्श न करते हुए अथवा मस्तक एवं पैरों को ऊपर रख कर तथा पोठ को जमीन पर टेक कर सोए। दण्डायतिका--डण्डे की तरह लंबा होकर अर्थात् पैर फैलाकर बैठे या लेटे, गाँव आदि से बाहर रहे। दशवी भिक्षु-प्रतिमा या तृतीय सप्त-रात्रिदिवा भिक्षु-प्रतिमा का समय भी पहले की तरह सात दिन-रात का है। साधक पूर्ववत् गाँव, नगर आदि से बाहर रहे। गोदुहासन-गाय दुहने की स्थिति में बैठे या बीरासन----कुर्सी के ऊपर बैठे हुए मनुष्य के नीचे से कुर्सी निकाल लेने पर जैसी स्थिति होती है, साधक उस आसन से बैठे या आम्रकुब्जासन-ग्राम के फल की तरह किसी खूटी आदि का सहारा लेकर सारे शरीर को अधर रख कर रहे। अहोरात्रि भिक्षु-प्रतिमा इस प्रतिमा में चौविहार बेला करे, गाँव से बाहर रहे। प्रलम्बभुज हो—दोनों हाथों को लटकाते हुए स्थिर रखे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org