________________ मिक्ष-प्रतिमा उसके खाये बिना उसमें से भिक्षा लेना उसके लिए कल्पनीय-स्वीकरणीय नहीं है। शिशु को स्तन-पान कराती माता शिशु को छोड़कर यदि भिक्षा दे तो वह नहीं लेता। वह दोनों पांव घर के अन्दर रख कर दे या घर के बाहर रख कर दे तो वह पाहार ग्रहण नहीं करता। देने वाले का एक पांव घर की देहली के अन्दर तथा एक पाँव घर की देहली के बाहर हो, तो प्रतिमाधारी साधु के लिए वह आहार कल्पनीय है / प्रतिमाधारो साधु के भिक्षा ग्रहण करने के तीन काल है-आदिकाल, मध्यकाल तथा अन्तिमकाल। इनमें से मध्यम काल में भिक्षार्थ जाने वाला प्रथम तथा अन्तिम काल में नहीं जाता है। एकमासिक प्रतिमा-प्रतिपन्न साधु छह प्रकार से भिक्षा ग्रहण करता है, यथा-परिपूर्ण पेटी या सन्दूक के आकार के चार कोनों के चार घरों से, प्राधी पेटी या सन्दूक के आकार के दो कोनों के धरों से, गोमूत्रिका के आकार के घरों से-एक घर एक तरफ का, एक घर सामने का, फिर एक घर दूसरी तरफ का-यों स्थित घरों से, पतंग-वीथिका—पतिंगे के प्राकार के फुटकर घरों से, शखावत-शख के आकार के घरों से---एक घर ऊपर का, एक घर नीचे का,फिर एक घर ऊपर का, फिर एक घर नोचे का-ऐसे घरों से मत-प्रत्यागत-सीधे पंक्तिबद्ध घरों से भिक्षा ग्रहण करता है। प्रतिमाप्रतिपन्न भिक्षु उस स्थान के एक ही रात्रि प्रवास कर विहार कर जाए, जहाँ उसे कोई पहचानने वाला हो। जहाँ कोई पहचानता नहीं हो, वहाँ वह एक रात, दो रात प्रवास कर विहार कर जाए। एक, दो रात से वह अधिक रहता है तो उसे दीक्षा-क्षेप या परिहार का प्रायश्चित्त लेना होता है। प्रतिमाप्रतिपन्न साधु के लिए चार प्रयोजनों से भाषा बोलना काल्पनीय है-----प्राहार आदि लेने के लिए, २-शास्त्र तथा मार्ग पूछने के लिए, ३-स्थान आदि की आज्ञा लेने के लिए, ४-प्रश्नों का उत्तर देने के लिए। प्रतिमाधारी साधु जिस स्थान में रहता हो, वहाँ कोई आग लगा दे तो उसे अपना शरीर बचाने हेतु उस स्थान से निकलना, अन्य स्थान में प्रवेश करना नहीं कल्पता। यदि कोई मनुष्य उस मुनि को आग से निकालने पाए, बांह पकड़ कर खींचे तो उस प्रतिमाधारी मुनि को उस गहस्थ को पकड़कर रखना, उसको रोके रखना नहीं कल्पता किन्तु ईर्यासमिति पूर्वक बाहर जाना कल्पता है। प्रतिमाधारी साधु की पगथली में कीला, काँटा, तृण, कंकड़ आदि धंस जाय तो उसे उनको अपने पैर से निकालना नहीं कल्पता, ईर्यासमिति जागरूकता पूर्वक विहार करना कल्पता है। उसकी आँख में मच्छर आदि पड जाएं, बीज, रज, धल आदि के कण पड जाएं तो उन्हें निकालना, आँखों को साफ करना उसे नहीं कल्पता। प्रतिमाधारी साधु बाहर जाकर आया हो या विहार करके प्राया हो, उसके पैर सचित्त धूल से भरे हों तो उसे उन पैरों से गृहस्थ से घर में प्राहार-पानी ग्रहण करने प्रवेश करना नहीं कल्तता। प्रतिमाधारी साधु को घोड़ा, हाथी, बैल, भैंस, सूअर, कुत्ता, बाध आदि क्रूर प्राणी अथवा दुष्ट स्वभाव के मनुष्य, जो सामने आ रहे हों, देखकर वापिस लोटना या पाँव भी इधर उधर करना नहीं कल्पता। यदि सामने माता जीव अदुष्ट हो, कदाचित् वह साधु को देख कर भयभीत होता हो, भागता हो तो साधु को अपने स्थान से मात्र चार हाथ जमीन पीछे सरक जाना कल्पनीय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org