________________ आयम्बिल वर्द्धमान] वर्द्धमान तप किये जाने का वर्णन है / ' ___ इस तप में प्रायम्बिल (जिसमें एक दिन में एक बार भुना हुआ या पकाया हुअा एक अन्न पानी के साथ-पानी में भिगोकर खाया जाए) के साथ उपवास का एक विशेष क्रम रहता है। पायम्बिलों की क्रमश: बढ़ती-हुई संख्या के साथ उपवास चलता रहता है / एक प्रायम्बिल, एक उपवास, दो पायम्बिल, एक उपवास, तोन पायर्याम्बल, एक उपवास, चार प्रायम्बिल एक उपवास-यों उत्तरोत्तर बढ़ते-बढ़ते सौ प्रायम्बिलों तक यह क्रम चलता है / इस तप में 1+2+3+4+5+6+7+ +1+10+11+12+13+14+15+ 16 17 18 19 20+21+22+23+24 +25+26 27 +28+29+3+31 +-32+33+34+35+36+37+38+39+ 40+4+42+43+44+45+46+ 47+48+49+50+5+52+53+54-55+56-57 F58 +59+60+6+62 +63+64+6 +66+6 +6 +69+7+7+72+73 / 74+75+76+77+78+79+80+81-82+83+54 +85+8687+88+89+90+91+92-93 +94+95-96+97+98+92+100+ =5050 प्रायम्बिल+१०० उपवास = 5150 दिन = चवदह वर्ष तीन महीने बीस दिन लगते हैं। वत्तिकार प्राचार्य अभयदेवसूरि ने प्रस्तुत आगम की वृत्ति में इस तप का जो क्रम दिया है, उसके अनुसार पहले एक उपवास, फिर एक प्रायम्बिल, फिर उपवास, दो प्रायम्बिल, उपवास, तीन आयम्बिल, उपवास, चार प्रायम्बिल–यों सो तक क्रम चलता है / अर्थात् उन्होंने इस तप का प्रारंभ उपवास से माना है पर जैसा ऊपर उल्लेख किया गया है, अन्तकृद्दशांग सूत्र में प्रायम्बिल पूर्वक उपवास का क्रम है / वही प्रचलित है तथा आगमोक्त होने से मान्य भी। 1. एवं महासेणकण्हा वि, नवरं-आयंबिल-बड्ढमाणं तवोकम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरइ, तं जहा आयंबिलं करेइ. करेत्ता चउत्थं करे / वे आयंबिलाई करेइ, करता उत्थं करेइ / तिणि आयंबिलाई करेइ, करेत्ता चउत्थं करेइ / चत्तारि आयंबिलाई करेइ, करेत्ता चउत्थं करे / पंच आयंबिलाई करेइ, करेत्ता चउत्थं करेइ / छ प्रायंबिलाई करेइ, करेत्ता घउत्थं करेइ / एवं एक्कुत्तरियाए बड़ढीए आयंबिलाइं बढ़ति चउत्थंतरियाई जाव आयंबिलसय करेइ, करेत्ता बउत्थं तए सा महासेणकण्हा अज्जा अायंबिलवड्ढमाणं तवोकम्मं चोद्दसहि वासेहिं तिहि व मासेहिं वीसहि य अहोरत्तेहि 'प्रहासत्तं जाव राहेत्ता' जेणेव अज्जचंदणा अज्जा, तेणेव उवागया, उवागच्छित्ता वंदइ, नर्मसइ, बंदित्ता, नमंसित्ता बहूहिं चउत्थ-छठम-दसम-दुबालसेहिं मास-द्धमासखमणेहिं विविहेहिं तबोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाजी विहरइ / --अन्तकृद्दशासूत्र, पृष्ठ 175 2. 'पायंबिल बद्धमाणं' ति यत्र चतुर्थं कृत्वा अायामाम्लं क्रियते, पुनश्चतुर्थ, पुनर्ने प्रायामाम्ले, पुनश्चतुर्थ, पूनस्त्रीणि पायामाम्लानि, एवं यावच्चतुर्थं शतं चायामाम्लानां क्रियत इति / ---ौपपातिकसूत्र वृत्ति, पत्र 31 12 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org