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________________ रत्नावली] है, ज्यों-ज्यों आत्मा उज्जवल होती जाती है। अनशनमूलक तपस्या करने वाला साधक, आहार के . अभाव में जो शारीरिक कष्ट होता है, उसे आत्मबल तथा दृढ़तापूर्वक सहन करता है। वह पादाथिक जोवन से हटता हुआ आध्यात्मिक जीवन का सक्षात्कार करने को प्रयत्नशील रहता है। अनशन के लिए उपवास शब्द का प्रयोग बड़ा महत्त्वपूर्ण है। 'उप' उपसर्ग 'समीप' के अर्थ में है तथा वास का अर्थ निवास है / यों उपवास का अर्थ आत्मा के समीप निवास करना होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि साधक अशन-भोजन से, जो जीवन की दैनन्दिन आवश्यकताओं में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, विरत होने का अभ्यास इसलिए करता है कि वह दैहिकता से आत्मिकता या बहिर्मुखता से अन्तर्मुखता को ओर गतिशील हो सके, आत्मा का शुद्ध स्वरूप, जिसे अधिगत करना, जीवन का परम साध्य है, साधने में स्फति अजित कर सके। अतएव उपवास का जहाँ निषेधमुलक अर्थ भोजन का त्याग है, वहाँ विधिमूलक तात्पर्य आत्मा के-अपने आपके समीप अवस्थित होने या प्रात्मानुभूति करने से जुड़ा है। जैनधर्म में अनशनमूलक तपश्चरण का बड़ा क्रमबद्ध विकास हुआ। तितिक्षु एवं मुमुक्षु साधकों का उस अोर सदा से झकाव रहा। प्रस्तत सत्र में भगवान महावीर के अन्तेवासी उन श्रमणों की चर्चा है, जो विविध प्रकार से इस तपःकर्म में अभिरत थे। यहाँ संकेतित कनकावली, एकावली, लघुसिंह निष्क्रीडित, महासिंहनिष्क्रीडित आदि तपोभेदों का विश्लेषण पाठकों के लिए ज्ञानवर्धक सिद्ध होगा। रत्नावली अन्तकृद्दशांग सूत्र के अष्टम वर्ग में विभिन्न तपों का वर्णन है। अष्टम वर्ग के प्रथम अध्ययन में राजा कूणिक की छोटी माता, महाराज श्रेणिक की पत्नी काली की चर्चा है। काली ने भगवान् महावीर से श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। उसने आर्याप्रमुखा श्रीचन्दनबाला की आज्ञा से रत्नावली तप करना स्वीकार किया / रत्नावलो का अर्थ रत्नों का हार है / एक हार की तरह तपश्चरण की यह एक विशेष परिकल्पना है, जो बड़ी मनोज्ञ है / वहाँ रत्नावली तप के अन्तर्गत सम्पन्न किये जाने वाले उपवास-क्रम आदि का विशद वर्णन है।' 1. तए णं सा काली प्रज्जा अण्णया कयाइ जेणेव प्रज्जचंदणा अज्जा, तेणेव उवागया, उवागच्छित्ता एवं क्यासी इच्छामि णं अज्जायो ! तुन्भेहिं अब्भणण्णाया समागी रयणावलिं तवं उवसंपज्जित्ता गं विहरित्तए / प्रहासुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिबंधं करेहि / तए णं सा काली अज्जा अज्जचंदणाए अब्भणण्णाया समाणी रयणालि तवं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ, तं जहाचउत्थं करेइ, करेत्ता सव्यकामगुणियं पारेइ / करेइ, करेत्ता सब्बकामगुणियं पारेइ / छठें करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारे / दसम करेई, करेत्ता सञ्वकामगुणियं पारेइ / करेइ, करेता सब्बकामगुणियं पारेइ / दुवालसमं करेइ, करेत्ता सम्बकामगुणियं पारेइ / अट्ठछट्ठाई करेइ, करेता सव्वकामगुणियं पारे / चोद्दसम करेइ, करेत्ता सव्वकामगणियं पारे / चउत्थं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ / सोलसमं करेई, करेत्ता सबकामगुणियं पारे / छठं करेइ, करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेइ / अट्टारसमं करेइ, करेत्ता सबकामगुणियं पारेइ / अटुमं अट्ठमं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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