________________ 12] [औपपातिकसूत्र 8 ते णं तिलया जाव' पंदिरुषखा अण्णेहिं बहूहिं पउमलयाहिं, गागलयाहिं, असोग्रालयाहिं, चंपगलयाहि, चूयलयाहिं, वणलयाहिं, वासंतियलयाहि, अइमुत्तयलयाहिं कुदलयाहिं, सामलयाहिं सम्वओ समंता सपरिक्खित्ता॥ -वे तिलक, नन्दिवृक्ष, प्रादि पादप अन्य बहुत सी पद्मलतायों, नागलताओं, अशोकलताओं, चम्पकलताओं, सहकारलताओं, पोलुकलताओं, वासन्तीलताओं तथा अतिमुक्तकलतानों से सब ओर से घिरे हुए थे। ९--ताओ णं पउमलयानो णिच्चं कुसुमियाओ जाव (पिच्चं माइयायो, णिच्चं लवइयानो, णिच्चं थवइयानो, णिच्च गुलइयाओ, णिचं गोच्छियायो, णिच्चं जमलियानो, णिच्चं जवलियानो, गिच्च विणमियानो, णिचं पणभियानो, णिच्चं कुसुमिय-माइय-लवइय-थवइय-गुलइय-गोच्छिय-जमलिय-जुलिय-विमिय-पणमियसुविभत्तपिंडमंजरिवडिसयधरानो,) पासादीयानो, दरिसणिज्जानो, अभिरूवानो, पडिरूवारो। ९-वे लताएं सब ऋतुओं में फूलती थीं (मंजरियों, पत्तों, फूलों के गुच्छों, गुल्मों तथा पत्तों के गुच्छों से युक्त रहती थीं। वे सदा समश्रेणिक तथा यूगल रूप में अवस्थित थीं। वे पुष्प, फल आदि के भार से सदा विनमित-बहुत झुकी हुई, प्रणमित-विशेष रूप से अभिनत--नमी हुई, थीं। यों विविध प्रकार से अपनी विशेषताएँ लिये हुए वे लताएँ अपनी सुन्दर लुम्बियों तथा मंजरियों के रूप में मानो शिरोभूषण-कलंगियाँ धारण किये रहती थीं।) वे रमणीय, मनोरम, दर्शनीय, अभिरूपमन को अपने में रमा लेने वाली तथा प्रतिरूप-मन में बस जाने वाली थीं। शिलापट्टक १०-तस्स णं असोगवरपायवस्स हेवा ईसि खंधसमल्लीणे एस्थ णं महं एक्के पुढविसिलापट्टए पण्णते-विक्खंभायामउस्सेहसुप्पमाणे, किण्हे, अंजण-घण-किवाण-कुवलय हलहरकोसेज्जागास-केसकज्ज-लंगीखंजण-सिंगभेद-रिद्वय - जंबूफल-असणग-सण-बंधण-णीलुप्पलपत्तनिकर - अयसिकुसुमपगासे, मरगय-मसारकलित्त-णयणकीयरासिवण्णे, गिद्धघणे, असिरे प्रायंसयतलोवमे, सुरम्मे, ईहामियउसभ-तुरग-पर-मगर-विहग-वालग-किण्णर-रुरु-सरभ-चमर-कुजर-वणलय-पउमलय-भत्तिचित्ते, पाईणग-रूय-बूर-णवणीय-तूलफरिसे, सीहासणसंठिए, पासावीए, दरिसणिज्जे, अभिरूवे, पडिहवे / 10- उस अशोक वृक्ष के नीचे, उसके तने के कुछ पास एक बड़ा पृथिवी-शिलापट्टकचबूतरे की ज्यों जमी हुई मिट्टी पर स्थापित शिलापट्टक-था। उसकी लम्बाई, चौड़ाई तथा ऊंचाई समुचित प्रमाण में थी। वह काला था। वह अंजन (वृक्षविशेष), बादल, कृपाण, नीले कमल, बलराम के वस्त्र, आकाश, केश, काजल की कोठरी, खंजन पक्षी, भैंस के सींग, रिष्टक रत्न, जामुन के फल, बीयक (वनस्पतिविशेष), सन के फूल के डंठल, नील कमल के पत्तों की राशि तथा अलसी के फूल के सदृश प्रभा लिये हुए था / नील मणि, कसौटी, कमर पर बाँधने के चमड़े के पट्ट तथा आँखों की कनी निका-तारेइनके पुज जैसा उसका वर्ण था / वह अत्यन्त स्निग्ध-चिकना था / उसके पाठ कोने थे। वह दर्पण 1. देखें सूत्र-संख्या 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org