SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अशोक-वृक्ष [11 से अन्यान्य स्थानों से आये हुए विविध जाति के भँवरे मस्ती से गुनगुना रहे थे, जिससे वह स्थान गुंजायमान हो रहा था। वह वृक्ष भीतर से फूलों और फलों से प्रापूर्ण था तथा बाहर से पत्तों से ढंका था / यों वह पत्तों और फलों से सर्वथा लदा था / उसके फल स्वादिष्ट, नीरोग तथा निष्कण्टक थे। वह तरह-तरह के फूलों के गुच्छों, लता-कुजों तथा मण्डपों द्वारा रमणीय प्रतीत होता था, शोभित होता था। वहां भिन्न-भिन्न प्रकार की सुन्दर ध्वजाएँ फहराती थीं। चौकोर, गोल तथा लम्बी बावड़ियों में जालीझरोखेदार सुन्दर भवन बने थे। दूक दूर तक जानेवाली सुगन्ध के संचितपरमाणुओं के कारण वह वृक्ष अपनी सुन्दर महक से मन को हर लेता था, अत्यन्त तृप्तिकारक विपुल सुगन्ध छोड़ता था। वहाँ नानाविध अनेकानेक पुष्पगुच्छ, लता-कुज, मण्डप, गह--विश्रामस्थान तथा सुन्दर भार्ग व अनेक ध्वजाएँ विद्यमान थीं। अति विशाल होने से उसके नीचे अनेक रथों, यानों, डोलियों और पालखियों के ठहराने के लिए पर्याप्त स्थान था। ___ इस प्रकार वह अशोक वृक्ष रमणीय, सुखप्रद चित्त को प्रसन्न करनेवाला, दर्शनीय-देखने योग्य, अभिरूप-मन को अपने में रमा लेने वाला तथा प्रतिरूप-मनमें बस जाने वाला था। ६–से णं असोगबरपायवे प्रणेहि बहूहि तिलएहि, लउएहि, छत्तोवेहि, सिरीसे हिं, सत्तवणेहि, दहिवण्णेहि, लोहि, धवेहि, चंदणेह, अज्जुणेहि, गोवेहि, कुडएहि, कलंबेहि, सम्वेहि, फणसेहि, सालिमेहि, सालेहि, तालेहि, तमालेहि, पियरहि, पियंगूहि, पुरोवगेहि, रायरुक्षेहि, गंदिरुयखेहि, सम्वनो समता संपरिक्खित्ते / / ६-वह उत्तम अशोक वृक्ष तिलक, लकुच, क्षत्रोप, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव, चन्दन, अर्जुन, नीप, कुटज, कदम्ब, सव्य, पनस, दाडिम, शाल, ताल, तमाल, प्रियक, प्रियंगु, पुरोपग, राजवृक्ष, नन्दिवृक्ष-इन अनेक अन्य पादपों से सब पोर से घिरा हुआ था। ७-ते णं तिलया लउया जाब (छत्तोवया, सिरीसा, सत्तवण्णा, दहिवण्णा, लोद्धा, धवा, चंदणा, प्रज्जुणा, णीवा, कुडया, कलंबा, सव्वा, फणसा, दालिमा, साला, ताला, तमाला, पियया, पियंगुया, पुरोवगा, रायरुक्खा,) गंदिरुक्खा, कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला, मूलमंतो, कंदमंतो, एएसि वण्णो भाणियन्यो जाद' सिवियपरिमोयणा, सुरम्मा, दासादीया, परिसणिज्जा, अभिरुवा, पडिरूवा // ७-उन तिलक, लकुच, (भत्रोप, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव, चन्दन, अर्जुन, नोप, कुटज, कदम्ब, सव्य, पनस, दाडिम, शाल, ताल, तमाल, प्रियक, प्रियंगु, पुरोपग, राजवृक्ष) नन्दिवृक्ष- इन सभी पादपों की जड़ें डाभ तथा दूसरे प्रकार के तृणों से विशुद्ध-रहित थीं। उनके मूल, कन्द आदि दशों अंग उत्तम कोटि के थे। यों वे वृक्ष रमणीय, मनोरम, दर्शनीय, अभिरूप—मन को अपने में रमा लेने वाले तथा प्रतिरूप- मन में बस जानेवाले थे / उनका वर्णन अशोकवृक्ष के समान ज्ञान लेना चाहिए / 1. देखें सूत्र-संख्या 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy