________________ चम्पाधिपति कूणिक] [13 के तल के समान सुरम्य था। भेड़िये, बैल, घोड़े, मनुष्य, मगर, पक्षी, सांप, किन्नर, रुरु, अष्टापद चमर, हाथी, वनलता और पद्मलता के चित्र उस पर बने हुए थे। उसका स्पर्श मृगछाला, कपास, बूर, मक्खन तथा आक की रूई के समान कोमल था / वह आकार में सिंहासन जैसा था। इस प्रकार वह शिलापट्टक मनोरम, दर्शनीय, अभिरूप-मन को अपने में रमा लेने वाला और प्रतिरूप-मन में बस जाने वाला था। चम्पाधिपति कणिक ११-तत्थ णं चंपाए गयरीए कूणिए णामं राया परिवसइ-महयाहिमवंत-महंतमलय-मंदरमाहिदसारे, प्रच्चंतविसुद्धदीहरायकुलवंससुप्पसूए, णिरंतरं रायलक्खणविराइयंगमंगे, बहुजणबहुमाणपूइए, सव्वगुणसमिद्धे, खत्तिए, मुइए, मुद्धाहिसित्ते, माउपिउसुजाए, दयपत्ते, सीमंकरे, सीमंधरे, खेमंकरे, खेमंधरे, मणुस्सिदे, जणक्यपिया, जणवयपाले, जणवयपुरोहिए, सेउकरे, केउकरे, णरपवरे, पुरिसवरे, पुरिससीहे, पुरिसवग्घे, पुरिसासोविसे, पुरिसपुंडरीए, पुरिसवरगंधहत्थी, अड्ढे, दित्ते, वित्ते, विच्छणिविउलभवण-सयणासण-जाण-वाहणाइण्णे, बहुधण-बहुजायसव-रयए, प्रायोगपयोगसंपउत्ते, विच्छड्डियपउरभत्तपाणे, बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलगप्पभूए, पडिपुण्णजंतकोसकोडागाराउधागारे, बलवं, दुब्बलपच्चामित्ते, प्रोहयकंटयं, निहयकंटयं, मलियकंटयं, उद्धियकंटयं, अकंटयं, प्रोयसत्तु, निहयसत्त, मलियसत्तु, उद्धियसत्तु, निज्जियसत्तु, पराइयसत्तु, ववगयदुभिक्खं, मारिभयविप्पमुक्क, खेम, सिवं, सुभिक्खं, पसंडिबडमरं रज्जं पसासेमाणे विहरइ / ११-चम्पा नगरी का कुणिक नामक राजा था, जो वहाँ निवास करता था। वह महाहिमवान् पर्वत के समान महत्ता तथा मलय, मेरु एवं महेन्द्र (संज्ञक पर्वतों) के सदृश प्रधानता या विशिष्टता लिये हुए था। वह अत्यन्त विशुद्ध-दोषरहित, चिरकालीन-प्राचीन राजवंश में उत्पन्न हुआ था। उसके अंग पूर्णतः राजोचित लक्षणों से सुशोभित थे / वह बहुत लोगों द्वारा प्रति सम्मानित और पूजित था, सर्वगुण समृद्ध-सब गुणों से शोभित क्षत्रिय था-जनता को अाक्रमण तथा संकट से बचाने वाला था / वह सदा मुदित-प्रसन्न रहता था। अपनी पैतृक परम्परा द्वारा, अनुशासनवर्ती अन्यान्य राजाओं द्वारा उसका मूर्धाभिषेक-राजाभिषेक या राजतिलक हुअा था / वह उत्तम मातापिता से उत्पन्न उत्तम पुत्र था। वह स्वभाव से करुणाशील था। वह मर्यादानों की स्थापना करने वाला तथा उनका पालन करने वाला था। वह क्षेमंकर--सबके लिए अनुकूल स्थितियाँ उत्पन्न करने वाला तथा क्षेमंधर--- उन्हें स्थिर बनाये रखने वाला था। वह परम ऐश्वयं के कारण मनुष्यों में इन्द्र के समान था। वह ने राष्ट्र के लिए पितृतुल्य, प्रतिपालक, हितकारक, कल्याणकारक, पथदर्शक तथा आदर्श उपस्थापक था। वह नरप्रवर- वैभव, सेना, शक्ति आदि की अपेक्षा से मनुष्यों में श्रेष्ठ तथा पुरुषवर-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चार पुरुषार्थो में उद्यमशील पुरुषों में परमार्थ-चिन्तन के कारण श्रेष्ठ था। कठोरता व पराक्रम में वह सिहतुल्य, रौद्रता में बाघ सदृश तथा अपने क्रोध को सफल बनाने के सामर्थ्य में सर्पतुल्य था। वह पुरुषों में उत्तम पुण्डरीक-सुखार्थी, सेवाशील जनों के लिए श्वेत कमल 1. टीकाकार प्राचार्य श्री अभयदेवसूरि ने 'मुदित' का एक दूसरा अर्थ निर्दोषमातृक भी किया है / उसे सन्दर्भ में उन्होंने उल्लेख किया है.---"मुइरो जो होइ जोणिसुद्धोत्ति / " --ौपपातिक सूत्र वृत्ति, पत्र 11 अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org