SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 6. में द्विक्रियावाद की उत्पत्ति हई।१३४ इसके प्रवर्तक प्राचार्य गंग थे। ये एक ही साथ दो क्रियानों का अनुवेदन मानते हैं / राशिक-श्रमण भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के पांच सौ चवालीस वर्ष पश्चात् अन्तरंजिका नगरी में पैराशिक मत का प्रवर्तन हया।३५ इसके प्रवर्तक आचार्य रोहगुप्त पिडुलक] थे / उन्होंने दो राशि के स्थान पर तीन राशियाँ मानी। 7. अबद्धिक-श्रमण भगवान महावीर के निर्वाण के पाँच सौ चौरासी वर्ष पश्चात् दशपुर नगर में अबद्धिक मत का प्रारम्भ हुआ। इसके प्रवर्तक प्राचार्य गोष्ठामाहिल थे।3। इनका यह मन्तव्य था कि कर्म आत्मा का स्पर्श करते हैं किन्तु उनके साथ एकीभूत नहीं होते। इन सात निह्नवों में जमाली, रोहगुप्त और गोष्ठामाहिल-ये तीनों अन्त समय तक अलग रहे / शेष चार निव भगवान् महावीर के शासन में पुनः मिल गये / इन सभी तापसों, परिव्राजकों और श्रमणों के मरण के पश्चात विभिन्न पर्यायों में जन्मग्रहण करने के उल्लेख हैं। ये उल्लेख इस बात के द्योतक हैं कि कौन साधक कितना अधिक साधना-सम्पन्न है? जिस अधिक निर्मल साधना है, उतना ही वह अधिक उच्च देवलोक को प्राप्त होता है। कर्मों का पूर्ण क्षय होने पर मुक्ति होती है। इसलिए केवली समुदघात का भी निरूपण है। केवली समुदधात में प्रात्म-प्रदेश सम्पूर्ण लोक में फैल जाते हैं। इसकी तुलना मुण्डक उपनिषद् के 'सर्वगतः' से की जा सकती है। 137 मुक्त आत्मानों की विग्रहगति नहीं होती, मुक्त होते समय साफारोपयोग होता है। सिद्धों की सादि अपर्यवसित स्थिति को द्योतित करने के लिए दग्ध बीज का उदाहरण दिया गया है। सिद्ध होने वाले जीव का संहनन, संस्थान, जघन्य-उत्कृष्ट अवगाहना, सिद्धों का निवास स्थान, सर्वार्थ सिद्ध विमान के ऊपरी भाग से ईषत् प्रारभारा पृथ्वी तल का अन्तर, ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी का पायाम, विष्कंभ, परिधि, मध्यभाग की मोटाई, उसके 12 नाम, उसका वर्ण, संस्थान, पौद्गलिक रचना, स्पर्श और उसकी अनुपम सुन्दरता का वर्णन किया गया है। ईषत् प्राग्भारा के उपरि तल से लोकान्त का अन्तर और कोश के छठे भाग में सिद्धों की अवस्थिति आदि बताई गई है। अन्त में बाईस गाथानों के द्वारा सिद्धों का वर्णन है। ये गाथायें सिद्धों के वर्णन को समझने में अत्यन्त उपयोगी हैं। इसमें भील-पत्र के उदाहरण से सिद्धों के सूख को स्पष्ट किया गया है। यह उदाहरण बहुत ही हृदयस्पर्शी है। इस प्रकार यह आगम अपने आप में महत्त्वपूर्ण सामग्री लिये हुए है। नगर, चैत्य, राजा और रानियों का सांगोपांग वर्णन अन्य आगमों के लिए आधार रूप रहा है। चम्पा नगरी का आलंकारिक वर्णन प्राकृत-साहित्य के --आवश्यक भाष्य, माथा-१३३. 134. अहावीसा दो वाससया तइया सिद्धिमयस्स वीरस्स / दो किरियाणं दिछी उल्लूगतीरे सम्प्पन्ना।। 135. पंच सया चोयाला तइया सिद्धि मयस्स वीरस्स। पुरिमंतरंजियाए तेरासियदिट्टी उप्पन्ना // 136. पंचसया चुलसीया तइया सिद्धि गयस्स बीरस्स / अबद्धिगाण विट्ठी दसपुरनयरे समुप्पन्ना / / 137. मुण्डक उपनिषद - 116 -आवश्यक भाष्य, गाथा-१३५. ---प्रावश्यक भाष्य, गाथा-१४१. [37 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy