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________________ 51. * कण्हवीवायण-कण्हदीवायण जातक १७और महाभारत 18 में इनका उल्लेख है। 52. देवगुप्त 53. नारय---नारद / क्षत्रिय परिव्राजक 54. सेलई 55. ससिहार [ससिहर अथवा मसिहार ? ] 56. जगई [नग्नजित्], 57. भग्गई 58. विदेह 59. रायाराय 60. रायाराम 61. बल ये परिव्राजक गण वेदों और वेदांगों में पूर्ण निष्णात थे। दान और शौच धर्म का उपदेश देते थे। इनका यह अभिमत था...-जो पदार्थ अशुचि से सने हुए हैं, वे मिट्टी आदि से स्वच्छ हो जाते हैं। वैसे ही हम पवित्र प्राचार, निरवद्य व्यवहार से, अभियेक-जल से अपने को पवित्र बना मकते हैं एवं स्वर्ग प्राप्त कर सकते हैं / ये परिव्राजक नदी, तालाब, पुष्करणी प्रति जलाशयों में प्रवेश नहीं करते और न किसी वाहन का ही उपयोग करते / न किसी प्रकार का नृत्य आदि खेल देखते / बनस्पति प्रादि का उन्मूलन नहीं करते और न धातुओं के पात्रों का ही उपयोग करते / केवल मिट्टी, लकड़ी और तुम्बी के पात्रों का उपयोग करते थे। अन्य रंग-बिरंगे वस्त्रों का उपयोग न कर केवल गेरुए वस्त्र पहनते थे / अन्य किसी भी प्रकार के सुगन्धित लेपों का उपयोग न कर केवल गंगा की मिट्टी का उपयोग करते थे। ये निर्मल छाना हा और किसी के द्वारा दिया हुया एक प्रस्थ जितना जल पीने के लिए ग्रहण करते थे। अम्बड़ परिवाजक और उनके सात सौ शिष्यों का उल्लेख प्रस्तुत प्रागम में हुआ है। जैन साहित्य के बृहत् इतिहास'१६ में तथा 'जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज' ग्रन्थों में अम्बड़ परिव्राजक के सात शिष्य होना लिखा है पर वह ठीक नहीं है। मूल शास्त्र में 'सत्त अंतेवासीसयाई' पाठ है। उसका अर्थ सात सौ अंतेवासी होता है, न कि सात / अम्बड़ परिव्राजक का वर्णन जैन साहित्य में दो स्थलों पर आया है- औपपातिक में और भगवती में / अम्बड़ परिव्राजक 120 नामक एक व्यक्ति का और उल्लेख है, जो आगामी चौबीसी में तीर्थकर होगा। औपपातिक में आये हुए अम्बड़ महाविदेह में मुक्त होंगे / 121 इसलिए दोनों पृथक-पृथक होने चाहिए। 117. कण्हदीवायण जातक-४, पृ. 83-87. 118. महाभारत-११११४१४५. 119. (क) जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग 2, पृ. 25. (ख) जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ. 416. —डा. जगदीशचन्द जैन 120. स्थानांग, 9 वाँ सूत्र 61. 121. (क) यश्चौपपातिकोपाङ्ग महाविदेहे सेत्स्यतीत्यभिधीयते सोऽन्य इति सम्भाव्यते। . -स्थानाग वृत्ति, पत्र-४३४ (ख) दीघनिकाय के अम्बदसुत्त में अंबद्र नाम के एक पंडित ब्राह्मण का वर्णन है / निशीथचणि पीठिका में महावीर अम्बट्ट को धर्म में स्थिर करने के लिए राजगह पधारे थे। --निशीथ चू. पीठिका, पृ. 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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