________________ . बौद्ध दष्टि से तप का उद्देश्य है -अकुशल कर्मों को नष्ट करना / तथागत बुद्ध ने सिंह सेनापति को कहा- हे सिंह ! एक पर्याय इस प्रकार का है, जिससे सत्यवादी मानव मुझे तपस्थी कह सकें। वह पर्याय है-पापकारक अकुशल धर्मों को तपाया जाये, जिससे पापकारक अकुशल धर्म गल जायें, नष्ट हो जायें और वे पुनः उत्पन्न नहीं हो 77 जैनधर्म की तरह बौद्धधर्म में तप का जैसा चाहिए वैसा वर्गीकरण नहीं है। मज्झिमनिकाय में मानव के चार प्रकार बताये हैं जैसे-१. जो आत्म-तप है पर पर-तप नहीं हैं। इस समूह में कठोर तप करने वाले तपस्वियों का समावेश होता है। जो अपने आप को कष्ट देते हैं पर दूसरों को नहीं। 2. जो पर-तप है किन्तु प्रात्म-तप नहीं हैं। इस समूह में वे हिंसक, जो पशुबलि देते हैं, आते हैं। वे दूसरों को कष्ट देते हैं, स्वयं को नहीं। 3. जो आत्म-तप भी है और पर-तप भी हैं। वे लोग जो स्वयं भी कष्ट सहन करते हैं और दूसरे व्यक्तियों को भी कष्ट प्रदान करते हैं। इस समूह में वे व्यक्ति आते हैं, जो तप के साथ यज्ञ-याग किया करते हैं। 4. जो आत्म-तप भी नहीं है और पर-तप भी नहीं है, ये वे लोग हैं, जो स्वयं को कष्ट नहीं देते और न दूसरों को ही कष्ट देते हैं। यह चतुभंगी स्थानांग की तरह है। इसमें वस्तुत: तप का वर्गीकरण नहीं हुआ है। तथागत बुद्ध ने अपने भिक्षुषों को अतिभोजन करने का निषेध किया था। केवल एक समय भोजन की अनुमति प्रदान की थी। रसासक्ति का भी निषेध किया था। विविध आसनों का भी विधान किया था। भिक्षाचर्या का भी विधान किया था। जो भिक्षु जंगल में निवास करते हैं, वृक्ष के नीचे ठहरते हैं, श्मशान में रहते हैं, उन धुतंग भिक्षुओं की बुद्ध ने प्रशंसा की। प्रवारणा [प्रायश्चित्त], विनय, यावत्य, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग-इन सभी को जीवन में आचरण करने की बुद्ध ने प्रेरणा दी। किन्तु बुद्ध मध्यममार्गी विचारधारा के थे, इसलिए जैन तप-विधि में जो कठोरता है, उसका उसमें अभाव है, उनकी साधना सरलता को लिये हए है। हमने यहां संक्षेप में वैदिक और बौद्ध तप के सम्बन्ध में चिन्तन किया है, जिससे आगम-साहित्य में आये हुए तप की तुलना सहज हो सकती है। वस्तुतः प्रस्तुन पागम में पाया हुआ तपो-वर्णन अपने आप में मौलिकता और विलक्षणता को लिये हुए हैं। भगवान महावीर के समवसरण में भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक-ये चारों प्रकार के देव उपस्थित होते थे। उन देवों के वर्णन में नानाप्रकार के आभूषण, वस्त्रों का उल्लेख हुआ है / यह वर्णन, जो शोधार्थी प्राचीन संस्कृति और सभ्यता का अध्ययन करना चाहते हैं, उनके लिए बहुत ही उपयोगी है / वस्त्र-निर्माण की कला में भारतीय कलाकार अत्यन्त दक्ष थे, यह भी इस वर्णन से परिज्ञात होता है। विस्तार-भय से हम यहाँ उस पर चिन्तन न कर मूल ग्रन्थ को ही देखने की प्रबुद्ध पाठकों को प्रेरणा देते हैं। साथ ही कुणिक राजा का भगवान को वन्दन करने के लिये जाने का वर्णन पठनीय है। इस वर्णन में अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य रहे हुए हैं। भगवान् महावीर की धर्मदेशना भी इसमें विस्तार के साथ आई है / यों धर्मदेशना में सम्पूर्ण जैन आचार मार्ग का प्ररूपण हुआ है। श्रमणाचार और श्रावकाचार का विश्लेषण हुआ है। उसके पश्चात् गणधर गौतम की विविध जिज्ञासायें हैं। पापकर्म का अनुबन्धन कैसे होता है ? और किस प्रकार के आचार-विचार बाला जीव मृत्यु के पश्चात् कहाँ पर (किस योनि में) उत्पन्न होता है ? यह उपपात-वर्णन प्रस्तुत आगम का हार्द है। और इसी आधार पर प्रस्तुत आगम का नामकरण हुआ है। यह वर्णन ज्ञानवर्धन के साथ 77. बुद्धलीलासारसंग्रह-पृ. 280/281. [28] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org