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________________ जो तप श्रद्धापूर्वक, फल की आकांक्षा रहित होकर किया जाता है, वही सात्त्विक तप कहलाता है। जो तप सत्कार, मान, प्रतिष्ठा के लिए अथवा प्रदर्शन के लिए किया जाता है, वह राजस तप है। जो तप अज्ञानतापूर्वक अपने आपको भी कष्ट देता है और दूसरों को भी दुःखी करता है, वह तामस तप है। प्रस्तुत आगम में तप का जो वर्गीकरण किया गया है, उसमें और गीता के वर्गीकरण में यही मुख्य अन्तर है कि गीताकार ने अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, इन्द्रिय-निग्रह, आर्जव, प्रभृति को तप के अन्तर्गत माना है, जबकि जन दृष्टि से वे महाव्रत और श्रमणधर्म के अन्तर्गत पाते हैं। गीता में जैनधर्म-मान्य बाह्य तपों पर चिन्तन नहीं हुआ है और आभ्यन्तर तप में से केवल स्वाध्याय को तप की कोटि में रखा है / ध्यान और कायोत्सर्ग को योग साधना के अन्तर्गत लिया है / वयावृत्य, विनय आदि को गुण माना है और प्रायश्चित्त का वर्णन शरणागति के रूप में हुआ है। महानारायणोपनिषद् में अनशन तप का महत्त्व यहाँ तक प्रतिपादित किया गया है कि अनशन तप से बढ़कर कोई तप नहीं है,७० जबकि गीताकार ने अवमोदर्य तप को अनशन से भी अधिक श्रेष्ठ माना है। उसका यह स्पष्ट अभिमत है-योग अधिक भोजन करने वालों के लिए सम्भव नहीं है और न निराहार रहने वालों के लिए सम्भव है किन्तु जो युक्त आहार-विहार करता है, उसी के लिए योग-साधन सरल है।" बौद्ध साधना पद्धति में भी तप का विधान है। वहाँ तप का अर्थ प्रतिपल-प्रतिक्षण चित्त शुद्धि का प्रयास करना है / महामंगलसुत्त में तथागत बुद्ध ने कहा-तप ब्रह्मचर्य आर्य सत्यों का दर्शन है और निर्वाण का साक्षात्कार है। यह उत्तम मंगल है।७२ काशीभारद्वाजसुत्त में तथागत ने कहा-मैं श्रद्धा का बीज वपन करता हूँ। उस पर तप की वृष्टि होती है। तन और बचन में संयम रखता हूँ। आहार को नियमित कर सत्य के द्वारा मन के दोषों का परिष्कार करता हूँ। दिट्टिवज्जसुत्त में उन्होंने कहा--किसी तप या व्रतों को ग्रहण करने से कुशल धर्मों की वृद्धि हो जायेगी और अकुशल धर्मों को हानि होगी। अतः तप अवश्य करना चाहिए। 3 बुद्ध ने अपने प्रापको तपस्वी कहा। उनके साधना-काल का वर्णन और पूर्व जन्मों के वर्णन में उत्कृष्ट तप का उल्लेख हुया है। उन्होंने सारिपुत्त के सामने अपनी उग्र तपस्या का निरूपण किया।७४ सम्राट् बिम्बिसार से कहा-मैं अब तपश्चर्या के लिए जा रहा हूँ। मेरा मन उस साधना में रमता है। यह पूर्ण सत्य है कि बुद्ध अज्ञानयुक्त केवल देह-दण्ड को निर्वाण के लिए उपयोगी नहीं मानते थे। ज्ञानयुक्त तप को ही उन्होंने महत्त्व दिया था। डॉ. राधाकृष्णन ने लिखा है- बुद्ध ने कठोर तपश्चर्या की आलोचना की, तथापि यह प्राश्चर्य है कि बौद्ध श्रमणों का अनुशासन किसी भी ब्राह्मण ग्रन्थों में वर्णित अनुशासन तिपश्चर्या] से कम कठोर नहीं है। यद्यपि शुद्ध सैद्धांतिक दृष्टि से वे निर्वाण की उपलब्धि तपश्चर्या के अभाव में भी सम्भव मानते हैं, फिर भी व्यवहार में तप उनके अनुसार आवश्यक सा प्रतीत होता है। 68. गीता--अध्याय-१७, एलो. 17, 18, 19. 69. भारतीय संस्कृति में तप साधना, ले. डॉ. सागरमल जैन 70. तपः नानशनात्परम। -महानारायणोपनिषद. 21. 2. 71. गीता, 7, श्लो. 16-17 72. महामंगलसुत्त--सुत्तनिपात, 16-10. 73. अंगुत्तरनिकाय-दिट्ठवज्ज सुत्त 74. मज्झिमनिकाय-महासिंहनाद सुत्त 75. सुत्तनिपात पवज्जा सुत्त-२७४२०, 76. Indian Philosophy, by-Dr. Radhakrishnan, Vol I. P. 436 [27] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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