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________________ वह ज्ञान से नष्ट होती है और इन्द्रियाँ, जो स्नायविक हैं, उन्हें अभ्यास से बदलना चाहिए। यदि वे विकारों में प्रवृत्त होती हों तो वैराग्यभावना से उनका निरोध करना चाहिए ! दमन शब्द खतरनाक नहीं है / व्यसनजन्य इच्छाओं से मुक्ति पाने के लिए इन्द्रिय-दमन आवश्यक है। इन्द्रिय-दमन का अर्थ इन्द्रियों को नष्ट करना नहीं अपितु दृढ़ संकल्प से इन्द्रियों की विषय-प्रवृत्ति को रोकना है। यह प्रात्मपरिणाम दढ़ संकल्प रूप होता है। व्यसनजन्य इच्छामों का दमन हानिकारक नहीं किन्तु स्वस्थता के लिए आवश्यक है। इच्छायें प्राकृतिक नहीं, अप्राकृतिक हैं / यह दमन प्रकृतिविरुद्ध नहीं किन्तु प्रकृतिसंगत है। इन्द्रियों की खतरनाक प्रवृत्ति को रोकना इन्द्रियानुशासन है और यह जैन दृष्टि से तप का सही उद्देश्य है। इसीलिए जन दृष्टि से प्रागम-साहित्य में बाह्य और आभ्यन्तर तप का उल्लेख किया है। प्राभ्यन्तर तप के बिना बाह्य तप कभी-कभी ताप बन जाता है। जैनदर्शन के तप की यह अपूर्व विशेषता प्रस्तूत आगम में विस्तार के साथ प्रतिपादित की गई है। वैदिक साधना पद्धति के सम्बन्ध में यदि हम चिन्तन करें तो यह स्पष्ट होगा, वह प्रारम्भ में तपप्रधान नहीं थी। श्रमण संस्कृति के प्रभाव से प्रभावित होकर उसमें भी तप के स्वर मुखरित हुए और वैदिक ऋषियों की हुत्तंत्रियाँ झंकृत हुई। तप से ही वेद उत्पन्न हुए हैं:५८ तप से ही ऋत और सत्य समुत्पन्न हुए हैं। तप से ही ब्रह्म को खोजा जाता है।६. तप से ही मृत्यु पर विजय-वैजयन्ती फहरा कर ब्रह्मलोक प्राप्त किया जाता है। जो कुछ भी दुर्लभ और दुष्कर है, वह सभी तप से साध्य है / 62 तप की शक्ति दुरतिक्रम है। तप का लक्ष्य आत्मा या ब्रह्म की उपलब्धि है। तप से ब्रह्म की अन्वेषणा की जा सकती है।६३ तप से ही ब्रह्म को जानो ! 64 यह प्रात्मा तप और सत्य के द्वारा ही जाना जा सकता है। महर्षि पतंजलि के शब्दों में कहा जाए तो तप से अशुद्धि का क्षय होने से शरीर और इन्द्रियों की शुद्धि होती है। जिस प्रकार जैन साधना पद्धति से बाह्य और प्राभ्यन्तर-ये दो तप के प्रकार बताये हैं, वैसे ही गीता में भी तप का वर्गीकरण किया गया है। स्वरूप की दष्टि से तप के 1. शारीरिक तप 2. वाचिक तप और 3. मानसिक तप-ये भेद प्रतिपादित किये हैं। 67 शारीरिक तप से तात्पर्य है-देव, द्विज, गुरुजन और ज्ञानी जनों का सत्कार करना। शरीर को प्राचरण से पवित्र बनाना, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा का पालन करना, यह शारीरिक तप है। वाचिक तप है—क्रोध का अभाव, प्रिय, हितकारी और यथार्थ संभाषण, स्वाध्याय और अध्ययन आदि / मानसिक तप वह है, जिसमें मन की प्रसन्नता, शांतता, मौन और मनोनिग्रह से भाव की शुद्धि हो। 58. तथैव वेदानषयस्तपसा प्रतिपेदिरे। -मनुस्मृति 11, 143. 59. ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्याजायत। -ऋग्वेद 10, 190, 1. 60. तपसा चीयते ब्रह्म / -मुण्डक-१,१, 8. 61. ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाध्नत। -बेद 62. यद् दुस्तरं यद्दुरापं दुर्ग यच्च दुष्करम् / सर्वं तु तपसा साध्यं तपोहि दुरतिक्रमम् // -मनुस्मृति-११/२३७. 63. तपसा चीयते ब्रह्म / - मुण्डकोपनिषद् -1. 1.8. 64. तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व। तैत्तरीयोपनिषद्-३. 2. 3. 4. 65. सत्येन लभ्यस्तपसा होष प्रात्मा। -मुण्डक-३. 1. 5. 66. कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षया तपसः। -43 साधनपाद योगसूत्र 67. गीता-अध्याय-१७, श्लो. 14, 15, 16. [ 26 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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