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________________ परिशिष्ट-१ : 'गण' और 'कुल' सम्बन्धी विचार] [185 स्पष्टतया कुछ भी अनुमान नहीं लगाया जा सकता, ऐसा (यह सब) क्यों किया गया। हो सकता है, उत्तरवर्ती गणों की प्रतिष्ठापन्नता बढ़ाने के लिए यह स्थापित करने का प्रयत्न रहा हो कि भगवान महावीर के गण भी इन्हीं नामों से अभिहित होते थे। एक सम्भावना और की जा सकती है, यद्यपि है तो बहुत दूरवर्ती, स्यात् भगवान् महावीर के नौ गणों में से प्रत्येक में एक एक ऐसे उत्कृष्ट साधना-निरत, महातपा, परमज्ञानी, ध्यानयोगी साधक रहे हों, जो जन-सम्पर्क से दूर रहने के नाते बिलकुल प्रसिद्धि में नहीं आये, पर जिनकी उच्चता एवं पवित्रता असाधारण तथा स्पृहणीय थी। उनके प्रति श्रद्धा, आदर और बहुमान दिखाने के लिए उन गणों के नामकरण, जिन-जिन में वे थे, उनके नामों से कर दिये गये हों। उत्तरवर्ती समय में संयोग कुछ ऐसे बने हों कि उन्हीं नामों के प्राचार्य हुए हों, जिनमें अपने नामों के साथ प्राक्तन गणों के नामों का साम्य देखकर अपने-अपने नाम से नये गण प्रवर्तित करने का उत्साह जागा हो। ये सब मात्र कल्पनाएँ और सम्भावनाएँ हैं / इस पहलू पर और गहराई से चिन्तन एवं अन्वेषण करना अपेक्षित है। तिलोयपण्णत्ति में भी गण का उल्लेख हुआ है। वहाँ कहा गया है "सभी तीर्थंकरों में से प्रत्येक के पूर्वधर, शिक्षक, अवधिज्ञानी, केवली, वैक्रियलब्धिधर, विपुलमति और वादी श्रमणों के साथ गण होते हैं / " भगवान महावीर के सात गणों का वर्णन करते हुए तिलोयपण्णत्तिकार ने लिखा है "भगवान् महावीर के सात गणों में उन-उन विशेषताओं से युक्त श्रमणों की संख्याएँ इस प्रकार थीं पूर्वधर तीन सौ, शिक्षक नौ हजार नौ सौ, अवधिज्ञानी एक हजार तीन सौ, केवली सात सौ, बैकियलब्धिधर नौ सौ, विपुलमति पाँच सौ तथा वादी चार सौ।"३ प्रस्तुत प्रकरण पर विचार करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यद्यपि 'गण' शब्द का प्रयोग यहाँ अवश्य हुअा है पर वह संगठनात्मक इकाई का द्योतक नहीं है। इसका केवल इतना-सा आशय है कि भगवान महावीर के शासन में अमुक-अमुक वैशिष्टय-सम्पन्न श्रमणों के अमुक-अमुक संख्या के समुदाय या समूह थे अर्थात् उनके संघ में इन-इन विशेषताओं के इतने श्रमण थे / केवलियों, पुर्वधरों तथा अवधिज्ञानियों के और इसी प्रकार अन्य विशिष्ट गुणधारी श्रमणों के अलग-अलग गण होते, यह कैसे सम्भव था। यदि ऐसा होता तो उदाहरणार्थ सभी केवली एक 1. पुव्वधर सिक्खको ही, केवलिवेकुब्वी विउलमदिवादी। पत्तेक सत्तगणा, सव्वाणं तित्थकत्ताणं / / -तिलोयपण्णत्ति 1098 तिसयाई पूवधरा, णवणउदिसयाई होति सिक्खगणा / तेरससयाणि प्रोही, सत्तसयाई पि केवलिणो॥ इगिसयरहिदसहस्सं, वेकुव्वी पणसयाणी विउलमदी। चत्तारि सया वादी, गणमुखा बडढमाणजिणे // --तिलोयपण्णत्ति 1160-61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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