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________________ 186] |औपपातिकसूत्र ही गण में होते / वहाँ किसी तरह की तरतमता नहीं रहती। न शिक्षक-शैक्ष भाव रहता और न व्यवस्थात्मक संगति ही। यहाँ गण शब्द मात्र एक सामूहिक संख्या व्यक्त करने के लिए व्यवहृत हुश्रा है। श्वेताम्बर-साहित्य में भी इस प्रकार के वैशिष्टय-सम्पन्न श्रमणों का उल्लेख हुया है, जहाँ भगवान् महावीर के संघ में केवली सात सी, मनःपर्यवज्ञानी पांच सौ, अवधिज्ञानी तेरह सौ, चतुर्दश-पूर्वधर तीन सौ, वादि चार सौ, बैंक्रियलब्धिधारी सात सौ तथा अनुत्तरोपपातिक मुनि पाठ सौ बतलाये गये हैं।' केवली, अवधिज्ञानी, पूर्वधर और वादी–दोनों परम्पराओं में इनकी एक समान संख्या मानी गई है। वैक्रियलब्धिधर की संख्या में दो सौ का अन्तर है / तिलोयपण्णति में उनकी संख्या दो सौ अधिक मानी गई है। उक्त विवेचन से बहुत साफ है कि तिलोयपण्णतिकार ने गण का प्रयोग सामान्यत: प्रचलित अर्थ समूह या समुदाय में किया है / श्रमणों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती गई। गणों के रूप में जो इकाइयाँ निष्पन्न हुई थीं, उनका रूप भी विशाल होता गया। तब स्यात् गण-व्यवस्थापकों को वृहत् साधु-समुदाय की व्यवस्था करने में कुछ कठिनाइयों का अनुभव हुप्रा हो। क्योंकि अनुशासन में बने रहना बहुत बड़ी सहिष्णता और धैर्य की अपेक्षा रखता है। हर कोई अपने उद्दीप्त अहं का हनन नहीं कर सकता। अनेक ऐसे कारण हो सकते हैं, जिनसे व्यवस्थाक्रम में कुछ और परिवर्तन आया। जो समुदाय गण के नाम से अभिहित होते थे, वे कुलात्मक इकाइयों में विभक्त हुए। ___ इसका मुख्य कारण एक और भी है। जहाँ प्रारंभ में जैनधर्म बिहार और उसके प्रासपास के क्षेत्रों में प्रसत था, उसके स्थान पर तब तक उसका प्रसार-क्षेत्र था। श्रमण दर-दर के क्षेत्रों में बिहार, प्रवास करने लगे थे। जैन श्रमण बाह्य साधनों का मर्यादित उपयोग करते थे, अब भी वैसा है। अतएव यह संभव नहीं था कि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों से पर्यटन करने वाले मुनिगण का पारस्परिक संपर्क बना रहे। दूरवर्ती स्थान से आकर मिल लेना भी संभव नहीं था, क्योंकि जैन श्रमण पद-यात्रा करते थे। ऐसी स्थिति में जो-जो श्रमण-समुदाय विभिन्न स्थानों में विहार करते थे, वे दीक्षार्थी मुमुक्षु जनों को स्वयं अपने शिष्य के रूप में दीक्षित करने लगे। उनका दीक्षित श्रमण-समुदाय उनका कुल कहलाने लगा। यद्यपि ऐसी स्थिति प्राने से पहले भी स्थविर-श्रमण दीक्षार्थियों को दीक्षित करते थे परन्तु दीक्षित श्रमण मुख्य पट्टधर या प्राचार्य के ही शिष्य माने जाते थे। परिवर्तित दशा में ऐसा नहीं रहा / दीक्षा देने वाले दीक्षागुरु और दीक्षित उनके शिष्य-ऐसा सीधा सम्बन्ध स्थापित हो गया। इससे संघीय ऐक्य की परंपरा विच्छिन्न हो गई और कुल के रूप में एक स्वायत्त इकाई प्रतिष्ठित हो गई। __ भगवतीसूत्र की वृत्ति में प्राचार्य अभयदेवसूरि ने एक स्थान पर कुल का विश्लेषण करते हुए लिखा है 1. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग पृष्ठ 473. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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