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________________ सिट : सारसंक्षेप [177 प्रणेगनाइजरामरणणिवेयणं संसारकलंकलीभावपुणभवगम्भवासवसहीपवंचमइक्कता सासयमणागया चिति। १६७-ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के तल से उत्सोधांगुल (माप) द्वारा एक योजन पर लोकान्त है / उस योजन के ऊपर के कोस के छठे भाग पर सिद्ध भगवान्, जो सादि--मोक्षप्राप्ति के काल की अपेक्षा से आदियक्त तथा अपर्यवसित-अनन्त हैं, जो जन्म, बूढापा, मृत्यू आदि अनेक योनियों की वेदना, संसार के भीषण दु:ख, पूनः पूनः होनेवाले गर्भवास रूप प्रपंच-बार बार ग्राने के संकट अतिक्रान्त कर चुके हैं, लाँघ चुके हैं, अपने शाश्वत--नित्य, भविष्य में सदा सुस्थिर स्वरूप में संस्थित रहते हैं।' विवेचन जैन साहित्य में वर्णित प्राचीन माप में अँगुल व्यावहारिक दृष्टि से सबसे छोटी इकाई है। वह तीन प्रकार का माना गया है-आत्मांगुल, उत्सेधांगुल तथा प्रमाणांगुल / वे इस प्रकार हैं प्रात्मांगुल-विभिन्न कालों के मनुष्यों का अवगाहन (अवगाहना)--प्राकृति-परिमाण भिन्नभिन्न होता है। अतः अंगल का परिमाण भी परिवर्तित होता रहता है। अपने समय के मनुष्यों के अंगल के माप के अनुसार जो परिमाण होता है, उसे प्रात्मांगल कहा जाता है। मनुष्य होते हैं, उस काल के नगर, वन, उपवन, सरोवर, कूप, वापी, प्रासाद आदि उन्हीं के अंगुल के परिमाण से--प्रात्मांगुल से नापे जाते हैं / उत्सेधांगुल-पाठ यवमध्य का एक उत्सेधांगुल माना गया है। नारक, मनुष्य, देव आदि को अवगाहना का माप उत्सेधांगुल द्वारा होता है / प्रमाणांगुल-उत्सेधांगुल से हजार गुना बड़ा एक प्रमाणांगुल होता है / रत्नप्रभा आदि नारक भूमियाँ, भवनपति देवों के भवन, कल्प (देवलोक-स्वर्ग), वर्षधर पर्वत, द्वीप आदि के विस्तार--लम्बाई, चौडाई, ऊँचाई, गहराई, परिधि आदि शाश्वत वस्तूमों का माप प्रमाणांगुल से होता है। ___ अनुयोगद्वार सूत्र में इसका विस्तार से वर्णन है / ' सिद्ध : सारसंक्षेप १६८-कहि पडिहया सिद्धा, कहि सिद्धा पडिदिया ? / कहिं बोदि चइत्ता णं, कत्थ गंतूण सिज्झई ? // 1 // 168 -सिद्ध किस स्थान पर प्रतिहत हैं—प्रतिरुद्ध हैं-आगे जाने से रुक जाते हैं ? वे कहाँ प्रतिष्ठित हैं-अवस्थित हैं ? वे यहाँ-इस लोक में देह को त्याग कर कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं ? .. १६९-अलोगे पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पडिदिया। इह बोंदि चइत्ता णं, तत्य गंतूण सिज्झई // 2 // –प्रौपपातिकसूत्र वृत्ति. पत्र 115 1. 'जोयणमि लोगते त्ति' इह योजनमृत्सेधाङ गुलयोजनमवसेयम् / 2. अनुयोगद्वार सूत्र, पृष्ठ 192-196 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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