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________________ [औषपातिकसूत्र १६४-ईसीपम्भाराए णं पुढवीए बहुमज्झदेसभाए अट्टजोयणिए खेत्ते अट्ठ जोयणाई बाहल्लेणं, तयाणंतरं च णं मायाए मायाए परिहायमाणी परिहायमाणी सव्वेसु चरिमपेरतेसु मच्छियपत्तायो तणुयतरा अंगुलस्स असंखेज्जइभागं बाहल्लेणं पण्णत्ता / 164- ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी अपने ठीक मध्य भाग में आठ योजन क्षेत्र में पाठ योजन मोटी है। तत्पश्चात् मोटेपन में क्रमशः कुछ कुछ कम होती हुई सबसे अन्तिम किनारों पर मक्खी की पाँख से पतली है। उन अन्तिम किनारों की मोटाई अंगुल के असंख्यातवें भाग के तुल्य है। १६५-ईसीपभाराए णं पुढवीए दुवालस णामधेज्जा पण्णता, तं जहा-ईसीह वा, ईसीपभारा इबा, तण इवा, तणुतण इवा, सिद्धी इवा, सिद्धालए इवा, मुत्ती इवा, मुत्तालए इ वा, लोयग्गे इ वा, लोयग्गभिगा इ वा, लोयग्गपडिबुज्झणा इ वा, सव्वापाण-भूय-जीव-सत्तसुहावहा इवा। 165-- ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के बारह नाम बतलाये गये हैं, जो इस प्रकार हैं-- 1. ईषत्, 2. ईषत्प्रारभारा, 3. तनु, 4. तनुतनु, 5. सिद्धि, 6. सिद्धालय, 7. मुक्ति, 8. मुक्तालय, 9. लोकाग्र, 10. लोकाग्रस्तूपिका, 11. लोकाग्रपतिबोधना, 12. सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वसुखावहा। १६६-ईसीपन्भारा णं पुढवी सेया आर्यसतलविमल-सोल्लिय-मुणाल-दगरय-तुसार-गोक्खीरहारवण्णा, उत्ताणयछत्तसंठाणसंठिया, सन्वज्जुणसुवण्णयमई, अच्छा, सोहा, लोहा, घट्टा, मट्ठा, पोरया, णिम्मला, णिप्पंका, णिक्कंकडच्छाया, समरीचिया, सुप्पभा, पासादीया, दरिसणिज्जा, अभिरुवा, पडिरूवा। 166 ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी दर्पणतल के जैसी निर्मल, सोल्लिय पुष्प, कमलनाल, जलकण, तुषार, गाय के दूध तथा हार के समान श्वेत वर्णयुक्त है। वह उलटे छत्र जैसे आकार में अवस्थित है-उलटे किये हुए छत्र जैसा उसका आकार है। वह अर्जुन स्वर्ण-श्वेत स्वर्ण--प्रत्यधिक मूल्य युक्त श्वेत धातुविशेष जैसी द्युति लिए हुए है। वह अाकाश या स्फटिक-बिल्लोर' जैसी स्वच्छ, श्लक्ष्ण कोमल परमाणु-स्कन्धों से निष्पन्न होने के कारण कोमल तन्तुओं से बुने हुए वस्त्र के समान मुलायम, लष्ट—सुन्दर, ललित प्राकृतियुक्त, घृष्ट-तेज शाण पर घिसे हुए पत्थर की तरह मानो तराशी हुई, मृष्ट सुकोमल शाण पर घिस कर मानो पत्थर की तरह संवारी हुई, नीरज-रजरहित, निर्मल-मलरहित, निष्पंक शोभायुक्त, समरीचिका—सुन्दर किरणों से-प्रभा से युक्त, प्रासादीय—चित्त को प्रसन्न करनेवाली, दर्शनीय-देखने योग्य, अभिरूप—मनोज्ञ—मन को अपने में रमा लेने वाली तथा प्रतिरूप—मन में बस जानेवाली है। १६७-ईसीपठभाराए णं पुढवीए सेयाए जोयणमि लोगते / तस्स जोयणस्स जे से उवरिल्ले गाउए, तस्स पं गाउयस्स जे से उवरिल्ले छन्भागे, तत्थ णं सिद्धा भगवंतो सादीया, प्रपज्जवसिया 1. संक्षिप्त हिन्दी शब्दसागर पृष्ठ 726 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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