________________ 178] १६९-सिद्ध लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित हैं अतः प्रलोक में जाने में प्रतिहत हैं-प्रलोक में नहीं जाते / इस भर्त्यलोक में ही देह का त्याग कर वे सिद्ध-स्थान में जाकर सिद्ध होते हैं। १७०-जं संठाणं तु इहं भवं चयंतस्स चरिमसमयंमि / पासी य पएसघणं, तं संठाणं तहिं तस्स // 3 // १७०-देह का त्याग करते समय अन्तिम समय में जो प्रदेशघन आकार-नाक, कान, उदर अादि रिक्त या पोले अंगों को रिक्तता या पोलेपन के विलय से घनीभूत प्राकार होता है, वही माकार वहाँ-सिद्धस्थान में रहता है / १७१-दीहं वा हस्सं वा, जं चरिमभवे हवेज्ज संठाणं / तत्तो तिभागहीणं, सिद्धाणोगाहणा भणिया // 4 // १७१-अन्तिम भव में दीर्घ या हस्व-लम्बा-ठिगना, बड़ा-छोटा जैसा भी प्राकार होता है, उससे तिहाई भाग कम में सिद्धों की अवगाहना-अवस्थिति या व्याप्ति होती है / १७२--तिणि सया तेत्तीसा, धणुत्तिभागो य होइ बोद्धव्यो। एसा खलु सिद्धाणं, उक्कोसोगाहणा भणिया // 5 // 172- सिद्धों को उत्कृष्ट अवगाहना तीन सौ तैतीस धनुष तथा तिहाई धनुष (बत्तीस अंगुल) होती है, सर्वज्ञों ने ऐसा बतलाया है। जिनकी देह पांच सौ धनुष-विस्तारमय होती है, यह उनकी अवगाहना है / १७३-चत्तारि य रयणीम्रो, रणितिभागूणिया बोद्धव्वा / एसा खलु सिद्धाणं, मज्झिमयोगाहणा भणिया / / 6 / / १७३--सिद्धों को मध्यम अवगाहना चार हाथ तथा तिहाई भाग कम एक हाथ (सोलह अंगुल) होती है, ऐसा सर्वज्ञों ने निरूपित किया है / सिद्धों की मध्यम अवगाहना का निरूपण उन मनुष्यों की अपेक्षा से है, जिनकी देह की अवगाहना सात हाथ-परिमाण होती है / 174-- एक्का य होइ रयणी, साहीया अंगुलाइ प्रष्ट भवे / एस खलु सिद्धाणं, जहण्णनोगाहणा भणिया // 7 // १७४-सिद्धों की जघन्य---न्यूनतम अवगाहना एक हाथ तथा पाठ अंगुल होती है, ऐसा सर्वज्ञों द्वारा भाषित है। यह अवगाहना दो हाथ की अवगाहना युक्त परिमाण-विस्तृत देह वाले कूर्मापुत्र प्रादि की अपेक्षा से है। १७५--प्रोगाहणाए सिद्धा, भवतिभागेण होंति परिहोणा। संठाणमणिस्थत्यं, जरामरणविप्पमुक्काणं // 8 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org