________________ सिद्धों का स्वरूप एवं सिद्धमान के संहनन संस्थान आदि] [173 सिद्धों का स्वरूप 154 ते णं तत्थ सिद्धा हवंति सादीया, अपज्जवसिया, प्रसरीरा, जीवघणा, सणनाणोवउत्ता, निट्ठियट्ठा, निरेयणा, नीरया, णिम्मला, वितिमिरा, विसुद्धा सासयमणागयद्धं कालं चिट्ठति। १५४-वहाँ-लोकान में सादि-मोक्ष-प्राप्ति के काल की अपेक्षा से आदिसहित, अपर्य. वसित-अन्तरहित, अशरीर-शरीरहित, जीवघन-घनरूप सघन अवगाढ आत्मप्रदेश युक्त, ज्ञानरूप साकार तथा दर्शन रूप अनाकार उपयोग सहित, निष्ठितार्थ कृतकृत्य, सर्व प्रयोजन समाप्त किये हुए, निरेजन-निश्चल, स्थिर या निष्प्रकम्प, नीरज-कर्मरूप रज से रहित--बध्यमान कर्मवजित, निर्मल-मलरहित—पूर्वबद्ध कर्मों से विनिर्मुक्त, वितिमिर-अज्ञानरूप अन्धकार रहित, विशुद्ध-- परम शुद्ध-कर्मक्षयनिष्पन्न प्रात्मशुद्धियुक्त सिद्ध भगवान् भविष्य में शाश्वतकाल पर्यन्त (अपने स्वरूप में) संस्थित रहते हैं। १५५.-से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ ते णं तत्थ सिद्धा भवंति सादीया, अपज्जवसिया जाव (असरीरा, जीवघणा, दसणनाणोवउत्ता, निद्रियट्ठा, निरेयणा, नीरया, णिम्मला, वितिमिरा, विसुद्धा सासयमणागयद्धं कालं) चिट्ठति / गोयमा ! से जहाणामए बीयाणं अग्गिवडाणं पुणरवि अंकुरुप्पत्ती ण भवइ, एवामेव सिवाणं कम्मबीए दड्ढे पुणरवि जम्मुप्पत्ती न भवइ / से तेणठेणं गोयमा! एवं बच्चइ ते णं तत्थ सिद्धा भवंति सादीया, अपज्जवसिया जाव' चिट्ठति।। १५५–भगवान् ! वहाँ वे सिद्ध होते हैं, सादि--मोक्ष-प्राप्ति के काल की अपेक्षा से आदिसहित, अपर्यवसित -अन्त रहित, (अशरीर—शरीर-रहित, जीवघन-घनरूपअवगाहरूप प्रात्मप्रदेशयुक्त, दर्शनज्ञानोपयुक्त-दर्शन रूप अनाकार तथा ज्ञानरूप साकार उपयोग सहित, निष्ठितार्थ-- कृतकृत्य, सर्व प्रयोजन समाप्त किये हुए, निरेजन-निश्चल, स्थिर या निष्प्रकम्प, नीरज-कर्मरूप रज से रहित---बध्यमान कर्म-वजित, निर्मल--:मलरहित ---पूर्वबद्ध कर्मों से विनिर्मुक्त, वितिमिरअज्ञानरूप अन्धकार से रहित, विशुद्ध-परम शुद्ध --कर्मक्षयनिष्पन्न प्रात्मशुद्धि युक्त) शाश्वतकालपर्यन्त स्थित रहते हैं---इत्यादि आप किस आशय से फरमाते हैं ? गौतम ! जैसे अग्नि से दग्ध-सर्वथा जले हुए बीजों की पुनः अंकुरों के रूप में उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार कर्म-बीज दग्ध होने के कारण सिद्धों की भी फिर जन्मोत्पत्ति नहीं होती। गौतम ! मैं इसो प्राशय से यह कह रहा हूँ कि सिद्ध सादि, अपर्यवसित..."होते हैं। सिद्धमान के संहनन संस्थान आदि १५६-जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरंमि संघयणे सिझति ? गोयमा! वइरोसभणारायसंघयणे सिझंति / 156 - भगवन् ! सिद्ध होते हुए जीव किस संहनन (दैहिक अस्थि-बंध) में सिद्ध होते हैं ? गौतम ! वे बज्र-ऋषभ-नाराच संहनन में सिद्ध होते हैं। 1. देखें सूत्र यही / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org