________________ 172] [औपपातिकसूत्र १५१-भगवन् ! क्या सयोगी-मन, वचन तथा काय योग से युक्त सिद्ध होते हैं ? (बुद्ध होते हैं ? मुक्त होते हैं ? परिनिवृत्त होते हैं–परिनिर्वाण प्राप्त करते हैं ?) सब दुःखों का अन्त करते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता। १५२-से णं पुवामेव सणिस्स पंचिदियस्स पज्जत्तगस्स जहणजोगिस्स हेट्ठा प्रसंखेज्जगुणपरिहोणं पढम भणजोगं निरुभइ, तयाणंतरं च णं बिदियस्स पज्जतगस्स जहण्णजोगिस्स हेडा असंखेज्जगुणपरिहीणं विइयं बइजोगं निरुभइ, तयाणंतरं च णं सुहमस्स पणगजीवस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णजोगस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीणं तइयं कायजोगं णिरु भइ / १५२–वे सबसे पहले पर्याप्त आहार आदि पर्याप्ति युक्त, संजी-समनस्क पंचेन्द्रिय जीव के जघन्य मनोयोग के नीचे के स्तर से असंख्यातगणहीन मनोयोग का निरोध करते हैं। अर्थात इतना मनोव्यापार उनके बाकी रहता है। उसके बाद पर्याप्त द्वीन्द्रिय जीव के जघन्य वचन-योग के नीचे के स्तर से असंख्यातगुणहीन वचन-योग का निरोध करते हैं। तदनन्तर अपर्याप्त-प्रहार श्रादि पर्याप्तिरहित सूक्ष्म पनक-नीलन-फूलन जीव के जघन्य योग के नीचे के स्तर से असंख्यातगुणहीन काय-योग का निरोध करते हैं। १५३-से गं एएणं उवाएणं पढम मणजोगं णिरु भइ, मणजोगं णिरु भित्ता वयजोगं णिरु भइ, वयजोगं णिरु भित्ता कायजोगणिरु भइ, कायजोगं गिरु भित्ता जोगनिरोहं करेइ, जोगनिरोहं करेता अजोगत्तं पाउणइ, अजोगत्तणं पाउणित्ता ईसि हस्सपंचक्खरुच्चारणद्धाए असंखेज्जसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसि पडिवज्जइ, पुठवरइयगुणसेढियं च णं कम्म तोसे सेलेसिमद्धाए प्रसंखेज्जेहि गुणसेढोहि अणते कम्मंसे खवयंते वेयणिज्जाउयणामगोए इच्चेते चत्तारि कम्मसे जुगवं खवेइ, खवित्ता ओरालियतेयकम्माई सव्वाहिं विपजहणाहि विप्पजहइ, विष्पजहिता उज्जुसेढीपडिवण्णे प्रफुसमाणगई उड्डू एक्कसमएणं अविग्गहेण गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ / १५३-इस उपाय या उपक्रम द्वारा वे पहले मनोयोग का निरोध करते हैं। मनोयोग का निरोध कर वचन-योग का निरोध करते हैं। बचन-योग का निरोध कर काय-योग का निरोध करते हैं। काय-योग का निरोध कर सर्वथा योगनिरोध करते हैं-मन, वचन तथा शरीर से सम्बद्ध प्रवृत्तिमात्र को रोकते हैं। इस प्रकार योग-निरोध कर वे अयोगत्व- अयोगावस्था प्राप्त करते हैं। अयोगावस्था प्राप्तकर ईषत्स्पृष्ट पांच ह्रस्व अक्षर-अ, इ, उ, ऋ, ल के उच्चारण के असंख्यात कालवौ अन्तर्मुहूर्त तक होने वाली शैलेशी अवस्था-मेरुवत् अप्रकम्प दशा प्राप्त करते हैं। उस शैलेशी-काल में पूर्वरचित गुण-श्रेणी के रूप में रहे कर्मों को असंख्यात गुण-श्रेणियों में अनन्त कर्माशों के रूप में क्षीण करते हुए वेदनीय, आयुष्य, नाम तथा गोत्र-इन चारों कर्मों का युगपत् एक साथ क्षय करते हैं। इन्हें क्षीण कर औदारिक, तैजस तथा कार्मण शरीर का पूर्ण रूप से परित्याग कर देते हैं। वैसा कर ऋजु श्रेणिप्रतिपन्न हो—आकाश-प्रदेशों की सीधी पंक्ति का अवलम्बन कर अस्पृश्यमान गति द्वारा एक समय में ऊर्ध्व-गमन कर-ऊँचे पहुँच साकारोपयोग–ज्ञानोपयोग में सिद्ध होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org