________________ योग-निरोध : सिद्धावस्था] [171 विवेचन--मन की प्रवृत्ति मनोयोग है। द्रव्य-मनोयोग तथा भाव-मनोयोग के रूप में वह दो प्रकार का है। मन की प्रवृत्ति हेतु मनोवर्गणा के जो पुद्गल संग्रहीत किये जाते हैं, उन्हें द्रव्य-मनोयोग कहा जाता है। उन गृहीत पुद्गलों के सहयोग से प्रात्मा जो मननात्मक प्रवृत्ति; वर्तमान, भूत, भविष्य आदि के सन्दर्भ में चिन्तन, मनन, विमर्श आदि करती है, उसे भाव-मनोयोग कहा जाता है। केवली में इसका सद्भाव नहीं रहता। जैसा प्रस्तुत सूत्र में संकेतित हुआ है, मनोयोग चार प्रकार का है 1. सत्य मनोयोग, 2. असत्य मनोयोग, 3. सत्य-असत्य-मिश्रित मनोयोग तथा 4. व्यवहार मनोयोग-मन की वैसी ब्यावहारिक आदेश, निर्देश प्रादि से सम्बद्ध प्रवृत्ति, जो सत्य भी नहीं होती, असत्य भी नहीं होती। 149 --ययजोगं जुजमाणे कि सच्चवइजोगं जुजइ ? मोसबइजोगं जुजइ ? सच्चामोसबइजोगं जुजइ ? असच्चामोसवइजोगं जुजइ ? गोयमा ! सच्चवइजोगं जुजइ, णो मोसबइजोग जुजइ, णो सच्चामोसवइजोगं जुजह, प्रसच्चामोसवइजोग पि जुजह / १४९-भगवन् ! बाक्योग को प्रयुक्त करते हुए-वचन-क्रिया में प्रवृत्त होते हुए क्या सत्य वाक्-योग को प्रयुक्त करते हैं। क्या मृषा-वाक्-योग को प्रयुक्त करते हैं ? क्या सत्य-मृषा-वाक् योग को प्रयुक्त करते हैं ? क्या असत्य-अमृषा-वाक्-योग को प्रयुक्त करते हैं ? गौतम ! वे सत्य-वाक्-योग को प्रयुक्त करते हैं। मृषा-वाक-योग को प्रयुक्त नहीं करते। न वे सत्य-मृषा-वाक्-योग को ही प्रयुक्त करते हैं / वे असत्य-अमृषा-वाक्-योग-व्यवहार-वचन-योग को भी प्रयुक्त करते हैं। १५०-कायजोगं जुजमाणे पागच्छेज्ज वा, चिट्ठज्ज वा, णिसीएज्ज बा, तुयटेज वा, उल्लंधेज्ज वा, पलंधेज्ज वा, उक्खेवणं वा, प्रवक्खेवणं वा, तिरियखेवणं वा करेज्जा पाडिहारियं वा पीढफलगसेज्जासंथारगं पच्चपिज्जा / १५०-वे काययोग को प्रवृत्त करते हुए प्रागमन करते हैं, स्थित होते हैं-ठहरते हैं, बैठते हैं, लेटते हैं, उल्लंघन करते हैं लांघते हैं, प्रलंघन करते हैं—विशेष रूप से लांघते हैं, उत्क्षेपण करते हैं-हाथ आदि को ऊपर करते हैं, अवक्षेपण करते हैं नीचे करते हैं तथा तिर्यक् क्षेपण करते हैं-तिरछे या आगे-पीछे करते हैं। अथवा ऊँची, नीची और तिरछी गति करते हैं। काम में ले लेने के बाद प्रातिहारिक-वापस लौटाने योग्य उपकरण—पट्ट, शय्या, संस्तारक आदि लौटाते हैं। योग-निरोध : सिद्धावस्था १५१-से णं भंते ! तहा सजोगी सिझड, जाव (बज्भइ, मुच्चइ, परिणिग्याइ, सन्यबुक्खाणं) अंतं करेइ ? जो इणठे समठे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org