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________________ अनारंभी श्रमण पायाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिया, उच्चारपासवण-खेलसिंघाणजल्लपरिद्वावणियासमिया, मणगुत्ता, वयगुत्ता, कायगुत्ता, गुत्ता, गुत्तिदिया, गुत्तबंभयारी, प्रममा, अकिचणा, छिण्णागथा, छिण्णसोया, निरुवलेवा, कंसपाईव मुक्कतोया, संख इव निरंगणा, जीवो इव अप्पडिहयगई, जच्चकणगं पिव जायरूका, पादरिसफलगा इव पागडभावा, कुम्मो इव गुत्तिदिया, पुक्खरपत्तं इव निरुवलेवा, गगणमिव निरालंबणा, अणिलो इव निरालया, चंदो इव सोमलेसा, सूरो इव दित्ततेया, सागरो इव गंभीरा, विहग इव सवप्रो विष्पमुक्का, मंदरा इव अपकंपा, सारयसलिलं इव सुद्धहियया, खग्गिविसाणं इव एगजाया, भारंडपक्खी इव अप्पमत्ता कुंजरो इव सोंडोरा वसभो इव जायत्थामा, सीहो इव दुद्धरिसा, वसुंधरा इव सव्वफासविसहा, सुहुयहुयासणो इव तेयसा जलता) इणमेव निग्गंथं पावयणं पुरोकाउँ विहरति / १२६वे अनगार-श्रमण ऐसे होते हैं, जो ईर्या--गमन, हलन-चलन आदि क्रिया, भाषा, आहार आदि की गवेषणा, याचना, पात्र आदि के उठाने, इधर-उधर रखने आदि में, मल, मूत्र, खंखार, नाक आदि का मल त्यागने में समित-सम्यक् प्रवृत्त-यतनाशील होते हैं, जो मनोगुप्त, वचोगुप्त, कायगुप्त-मन, वचन तथा शरीर को क्रियाओं का गोपायन--संयम करने वाले, गुप्त-शब्द आदि विषयों में रागरहित-अन्तर्मुख, गुप्तेन्द्रिय-इन्द्रियों को उनके विषय-व्यापार में लगाने की उत्सुकता से रहित, गुप्त ब्रह्मवारी-नियमोपनियम पूर्वक ब्रह्मचर्य का संरक्षण--परिपालन करने वाले, अमम ममत्वरहित, अकिञ्चन--परिग्रहरहित, छिन्नग्रन्थ---संसार से जोड़नेवाले पदार्थों से विमुक्त, छिन्नस्रोत-लोक-प्रवाह में नहीं बहनेवाले या आस्रवों को रोक देने वाले, निरुपलेप-कर्मबन्ध के लेप से रहित, कांसे के पात्र में जैसे पानी नहीं लगता, उसी प्रकार स्नेह, पासक्ति आदि के लगाव से रहित, शंख के समान निरगण--राग आदि की रंजनात्मकता से शन्य-शंख जैसे सम्मुखीन रंग से अप्रभावित रहता है, उसी प्रकार सम्मुखीन क्रोध, द्वेष, राग, प्रेम, प्रशंसा, निन्दा आदि से अप्रभावित, जीव के समान अप्रतिहत-प्रतिघात या निरोध रहित गतियुक्त, जात्य-उत्तम जाति के, विशोधित, अन्य कुधातुओं से अमिश्रित शुद्ध स्वर्ण के समान जातरूप प्राप्त निर्मल चारित्र्य में उत्कृष्ट भाव से संस्थित-निर्दोष चारित्र्य के प्रतिपालक, दर्पणपट्ट के सदृश प्रकट भाव-प्रवंचना, छलना व कपट रहित शुद्ध भाव युक्त, कछुए को तरह गुप्तेन्द्रिय-इन्द्रियों को विषयों से खींच कर निवृत्ति-भाव में संस्थित रखने वाले, कमलपत्र के समान निर्लेप, आकाश के सदृश निरालम्ब-निरपेक्ष, वायु की तरह निरालय-गृहरहित, चन्द्रमा के समान सौम्य लेश्यायुक्त सौम्य, सुकोमल-भावसंवलित, सूर्य के समान द्वीप्त तेज- दैहिक तथा आत्मिक तेज युक्त, समुद्र के समान गम्भीर, पक्षी की तरह सर्वथा विप्रमुक्त-मुक्तपरिकर, अनियतवास-परिवार, परिजन आदि से मुक्त तथा निश्चित निवास रहित, मेरु पर्वत के समान अप्रकम्प--अनुकूल, प्रतिकूल स्थितियों में, परिषहों में अविचल, शरद् ऋतु के जल से समान शुद्ध हृदय युक्त, गेंडे के सींग के समान एक जात-राग आदि विभावों से रहित, एकमात्र प्रात्मनिष्ठ, भारन्ड' पक्षी के समान अप्रमत-प्रमादरहित, जागरूक, हाथी के सदश शौण्डीर-कषाय प्रादि को जीतने में शक्तिशाली, बलोन्नत, वृषभ के समान धैर्यशील–सुस्थिर, 1. ऐसी मान्यता है--भारण्ड पक्षी के एक शरीर, दो सिर तथा तीन पैर होते हैं। उसकी दोनों ग्रीवाएं अलग अलग होती हैं। यों वह दो पक्षियों का समन्वित रूप लिये होता है। उसे अपने जीवन-निर्वाह हेतु खानपान आदि क्रियाओं में अत्यन्त प्रमादरहित या जागरूक रहना होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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