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________________ 164] [औपपातिकसूत्र सिंह के सदृश दुर्धर्ष-परिषहों, कष्टों से अपराजेय, पृथ्वी के समान सभी शीत, उष्ण, अनुकूल, प्रतिकूल स्पर्शों को समभाव से सहने में सक्षम तथा घृत द्वारा भली भांति हुत-हवन की हुई अग्नि के समान तेज से जाज्वल्यमान–ज्ञान तथा तप के तेज से दीप्तिमान होते हैं, निर्ग्रन्थ-प्रवचन-वीतराग-वाणी—जिन-याज्ञा को सम्मुख रखते हुए विचरण करते हैं ऐसे) पवित्र प्राचारयुक्त जीवन का सन्निर्वाह करते हैं। १२७-तेसि णं भगवंताणं एएणं विहारेण विहरमाणाणं अत्थेगइयाणं अणते जाव (अणुत्तरे, णिव्वाधाए, निरावरणे कसिणे, पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुपज्जइ। ते बहूई वासाई केर्वालपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता भत्तं पच्चक्खंति, भत्तं पच्चविखत्ता बहूई भत्ताई प्रणसणाए छेदेति, छेदित्ता जस्सट्टाए कोरइ नग्गभावे जाव (मुंउभावे, अण्हाणए, अदंतवणए, केसलोए, बंभचेरवासे, अच्छत्तगं, अणोवाहणगं, भूमिसेज्जा, फलहसेज्जा, कट्ठसेज्जा, परघरपवेसो लद्धावलद्ध, परेहि होलणामो, खिसणामो, निदणाओ, गरहणायो तालणामो, तज्जणामो, परिभवणायो, पम्वहणायो, उच्चावया गामकंटगा बावोसं परीसहोवसग्गा अहियासिज्जंति, तमट्ठमाराहित्ता चरिमेहि उस्सासहिस्सासेहि सिज्झति, बुझंति, मुच्चंति, परिणिब्वाति सम्वदुक्खाणं) अंतं करति। १२७-ऐसी चर्या द्वारा संयमी जीवन का सन्निर्वाह करने वाले पूजनीय श्रमणों में से कइयों को अनन्त-अन्तरहित, (अनुत्तर–सर्वश्रेष्ठ, नियाधात-बाधारहित या व्यवधानरहित, निरावण-प्रावरणरहित, कृत्स्न–समग्र-- सर्वार्थ ग्राहक, प्रतिपूर्ण परिपूर्ण-अपने समस्त अविभागी अंशों से युक्त) केवलज्ञान, केवलदर्शन समुत्पन्न होता है। वे बहुत वर्षों तक केवलिपर्याय का पालन करते हैं- कैवल्य-अवस्था में विचरण करते हैं / अन्त में आहार का परित्याग करते हैं, अनशन सम्पन्न कर (जिस लक्ष्य के लिए नग्नभाव-शरीर-संस्कार सम्बन्धी प्रौदासीन्य, मुण्डभाव-श्रामण्य, अस्नान, अदन्तवन, केश-लुचन, ब्रह्मचर्यवास, छत्र-छाते तथा उपानह—जूते, पादरक्षिका का अग्रहण, भूमि, फलक व काष्ठपट्टिका पर शयन, प्राप्त, अप्राप्त की चिन्ता किए बिना भिक्षा हेतु परगृहप्रवेश, अवज्ञा, अपमान, निन्दा, गो, तर्जना, ताड़ना, परिभव, प्रव्यथा, अनेक इन्द्रिय-कष्ट, बाईस प्रकार के परिषह एवं उपसर्ग प्रादि स्वीकार किये, उस लक्ष्य को पूर्ण कर अपने अन्तिम उच्छ्वास-निःश्वास में सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वृत होते हैं,) सब दुःखों का अन्त करते हैं। 128 जेसि पि य णं एगइयाणं णो केवलबरनाणदंसणे समुष्पज्जइ, ते बहूई वासाई छउमस्थपरियागं पाउणंति, पाणित्ता प्राबाहे उप्पण्णे वा अणुप्पण्णे वा भत्तं पच्चयखंति / ते बहूई भत्ताई अणसणाए छेति, जस्सट्टाए कीरइ नग्गभावे जाव' तमट्ठमाराहित्ता चरिमेहि ऊसासणीसासेहि अणंत अणुतरं, निवाघायं, निरावरणं, कसिणं, पडिपुण्णं केवलवरनाणदंसणं उप्पादेति, तो पच्छा सिज्झिहिति जाव' अंतं करेहिति / १२८—जिन कइयों-कतिपय अनगारों को केवलज्ञान, केवलदर्शन, उत्पन्न नहीं होता, वे बहुत वर्षों तक छद्मस्थ-पर्याय—कर्मावरणयुक्त अवस्था में होते हुए संयम-पालन करते हैं-साधना 1. देखें सूत्र-संख्या 127 2. देखें सूत्र-संख्या 127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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