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________________ 162] [औपपातिकसूत्र भेषज-तैयार औषधि, दवा, प्रतिहारिक-लेकर वापस लौटा देने योग्य वस्तु, पाट, बाजोट, ठहरने का स्थान, बिछाने के लिए घास आदि द्वारा प्रतिलाभित करते हुए विहार करते हैं-जीवनयापन करते हैं। इस प्रकार का जीवन जीते हुए वे अन्ततः भोजन का त्याग कर देते हैं। बहुत से भोजन-काल अनशन द्वारा विच्छिन्न करते हैं, बहत दिनों तक निराहार रहते हैं। वैसा कर वे पाप-स्थानों की आलोचना करते हैं, उनसे प्रतिक्रान्त होते हैं-प्रतिक्रमण करते हैं। यों समाधि अवस्था प्राप्त कर मृत्यु-काल आने पर देह-त्याग कर उत्कृष्टत: अच्युत कल्प में वे देव रूप में उत्पन्न होते हैं / अपने स्थान के अनुरूप वहाँ उनकी गति होती है। उनकी स्थिति बाईस सागरोपम-प्रमाण होती है। वे परलोक के आराधक होते हैं / अवशेष वर्णन पूर्ववत् है / १२५-~-सेज्जे इमे गामागर जाव' सण्णिवेसेसु मणुया भवंति, तं जहा–अणारंभा, अपरिग्गहा धम्मिया जाव (धम्माणुया, धम्मिट्ठा, धम्मक्खाई, धम्मपलोई, धम्मपलज्जणा, धम्मसमुदायारा, धम्मेणं चैव वित्ति कप्पेमाणा सुसीला, सुव्वया, सुपडियाणंदा, साहू, सव्वाप्रो पाणाइवायाो पडिविरया, जाव (सवानो मुसावायाग्रो पडिविरया, सव्वानो, अदिण्णादाणाम्रो पडिविरया, सध्वानो मेहणाम्रो पडिविरया) सन्याश्रो परिग्गहाम्रो पडिविरया, सन्वायो, कोहाम्रो, माणाम्रो, मायाम्रो, लोभानो जाव (पेज्जामो, दोसामो, कलहायो, अभक्खाणामो, पेसुण्णाम्रो, परपरिवायाग्रो, अरइरईयो, मायामोसाओ) मिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया, सव्वाप्रो प्रारंभसमारंभाप्रो पडिविरया, सत्वानो करणकारावणामो पडिविरिया, सन्यानो पयणपयावणामो पडिविरया, सव्वाओ कोट्टणपिट्टणतज्जणतालणवहबंधपरिकिलेसानो पडिविरया, सव्वानो व्हाण-मद्दण-वण्णग-विलेवण-सद्द-फरिस-रस-रूव- . गंध-मल्लालंकाराम्रो पडिविरया, जे यावष्णे तहप्पगारा सावज्जजोगोहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा कज्जति, तो वि पडिविरया जावज्जीवाए। १२५–ग्राम, प्राकर, सन्निवेश आदि में जो ये मनुष्य होते हैं, जैसे- अनारंभ-प्रारंभरहित, अपरिग्रह-परिग्रहरहित, धार्मिक, (धर्मानुग, मिष्ठ, धर्माख्यायो, धर्मप्रलोकी, धर्मप्ररंजन, धर्मसमुदाचार, धर्मपूर्वक जीविका चलाने वाले,) सुशील, सुव्रत, स्वात्मपरितुष्ट, वे साधुओं के साक्ष्य से जीवन भर के लिए सम्पूर्णत:-सब प्रकार की हिंसा, सम्पूर्णतः असत्य, सम्पूर्णतः चोरी, सम्पूर्णतः अब्रह्मचर्य तथा सम्पूर्णतः परिग्रह से प्रतिविरत होते हैं, सम्पूर्णतः क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, (प्रेय से, द्वेष से, कलह से, अभ्याख्यान से, पैशुन्य से परपरिवाद से अरति-रति से, मायामृषा से) मिथ्यादर्शनशल्य से प्रतिविरत होते हैं, सब प्रकार के प्रारंभ-समारंभ से प्रतिविरत होते हैं, करने, तथा कराने से संपूर्शतः प्रतिविरत होते हैं, पकाने एवं पकवाने से सर्वथा प्रतिविरत होते हैं, कटने, पीटने, तजित करने, ताडित करने, किसी के प्राण लेने, रस्सी आदि से बाँधने एवं किसी को कष्ट देने से सम्पूर्णतः प्रति विरत होते हैं, स्नान, मर्दन, वर्णक, विलेपन, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, माला, और अलंकार से सम्पूर्ण रूप में प्रतिविरत होते हैं, इसी प्रकार और भी पाप-प्रवृत्तियुक्त, छल-प्रपंचयुक्त, दूसरों के प्राणों को कष्ट पहुंचाने वाले कर्मों से जीवन भर के लिए सम्पूर्णत: प्रतिविरत होते हैं। अनारंभी श्रमण १२६–से जहाणामए अणगारा भवंति-इरियासमिया, भासासमिया, जाव (एसणासमिया 1. देखें सूत्र-संख्या 71 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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