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________________ अल्पारंभी आदि मनुष्यों का उपपात] [161 होते हैं, वे जीवन भर के लिये कूटने, पीटने, तजित करने कटु वचनों द्वारा भर्त्सना करने, ताड़ना करने, थप्पड़ आदि द्वारा ताड़ित करने, वध-प्राण लेने, बन्ध-रस्सी प्रादि से बाँधने, परिक्लेशपीड़ा देने से अंशतः प्रतिविरत होते हैं, अंशत: अप्रतिविरत होते हैं, वे जीवन भर के लिए स्नान, मर्दन, वर्णक, विलेपन, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, माला तथा अलंकार से अंशतः प्रतिविरत है अंशतः अप्रतिविरत होते हैं, इसी प्रकार और भी पापमय प्रवृत्ति युक्त, छल-प्रपंच युक्त, दूसरों के प्राणों को कष्ट पहुंचानेवाले कर्मों से जीवन भर के लिए अंशतः प्रतिविरत होते हैं, अंशतः अप्रतिविरत होते हैं। १२४-तं जहा--समणोवासगा भवंति, अभिगयजीवाजीवा, उवलद्धपुण्णपावा, प्रासव-संवरनिज्जर-किरिया-प्रहिगरण-बंध-मोक्ख-कुसला, असहेज्जा, देवासुर-णाग-जक्ख-रक्खस-किन्नर-किंपुरिसगरुल-गंधव-महोरगाइएहि देवगणेहि निग्गंथाम्रो पावयणाम्रो अणइक्कमणिज्जा, निग्गथे पावयणे णिस्संकिया, णिक्कंखिया, निन्चितिगिच्छा, लट्ठा, गहियट्ठा, पुच्छियट्ठा, अभिगयट्ठा, विणिच्छियट्टा अदिमिजपेमाणुरागरत्ता "प्रयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे प्रठे, अयं परमठे, सेसे अणठे" ऊसिय. फलिहा, प्रवंगुयदुवारा, चियत्तंतेउरपुरघरप्पवेसा चउद्दसट्टमुट्ठिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म प्रणुपालेत्ता समणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं, वत्थपडिग्गहकंबलपायपुच्छणेणं, प्रोसहभेसज्जेणं पडिहारएण य पीढफलगसेज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणा विहरंति, विहरित्ता भत्तं पच्चवखंति / ते बहई भत्ताई प्रणसणाए छेदेति, छेदिता पालोइयपडिक्कता, समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं अच्चए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति / तहि तेसि गई, बावीसं सागरोबमाई ठिई, पाराहगा, सेसं तहेव / १२४.--ऐसे श्रमणोपासक-गृही साधक होते हैं, जिन्होंने जीव, अजीब प्रादि पदार्थों का स्वरूप भली भांति समझा है, पुण्य और पाप का भेद जाना है, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध एवं मोक्ष को भली भाँति अवगत किया है, जो किसी दूसरे की सहायता के अनिच्छुक हैं-आत्मनिर्भर हैं, जो देव, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गन्धर्व, महोरग आदि देवों द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन से अनतिक्रमणीय–विचलित नहीं किये जा सकने योग्य हैं, निर्ग्रन्थ-प्रवचन में जो निःशंक-शंकारहित, निष्कांक्ष-आत्मोत्थान के अतिरिक्त अन्य आकांक्षा रहित, निर्विचिकित्स--विचिकित्सा या संशरहित, लब्धार्थ-धर्म के यथार्थ तत्त्व को प्राप्त किए हए, गहीतार्थउसे ग्रहण किये हुए, पृष्टार्थ-जिज्ञासा या प्रश्न द्वारा उसे स्थिर किये हुए, अभिगतार्थ-स्वायत्त किये हुए, विनिश्चितार्थ-निश्चित रूप में आत्मसात् किये हुए हैं, जो अस्थि और मज्जा तक धर्म के प्रति प्रेम तथा अनुराग से भरे हैं, जिनका यह निश्चित विश्वास है, निर्ग्रन्थ-प्रवचन ही अर्थप्रयोजनभूत है, इसके सिवाय अन्य अनर्थ-अप्रयोजनभूत हैं, उच्छित-परिघ-जिनके घर के किवाड़ों के पागल नहीं लगी रहती हो, अपावृतद्वार-जिनके घर के दरवाजे कभी बन्द नहीं रहते हों-भिक्षुक, याचक, अतिथि आदि खाली न लौट जाएं, इस दृष्टि से जिनके घर के दरवाजे सदा खुले रहते हों, त्यक्तान्तःपुरगृहद्वारप्रवेश-शिष्ट जनों के प्रावागमन के कारण घर के भीतरी भाग में उनका प्रवेश जिन्हें अप्रिय नहीं लगता हो, या अन्त:पुर अथवा घर में जिनका प्रवेश प्रीतिकर हो, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या एवं पूर्णिमा को परिपूर्ण पौषध का सम्यक अनुपालन करते हुए, श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रासूक-अचित्त, एषणीय-निर्दोष अशन. पान, खाद्य, स्वाद्य आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-प्रोञ्छन, औषध ---जड़ी, बूटी आदि वनौषधि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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