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________________ निहवों का उपपात] [157 था। वह तत्काल उठा, गया और देखा कि विछौना विछाया जा रहा है। यह देखकर उसने विचार किया-कार्य एक समय में निष्पन्न नहीं होता, बहुत समयों से होता है। कितनी बड़ी भूल चल रही है कि क्रियमाण को कृत कह दिया जाता है। भगवान महावीर भी ऐसा कहते हैं। जमालि के मन में इस प्रकार एक मिथ्या विचार बैठ गया / वेदना शान्त होने पर अपने साथी श्रमणों के सक्षम उसने यह विचार रखा / कुछ सहमत हुए, कुछ असहमत / जो सहमत हुए, उसके साथ रहे, जो सहमत नहीं हुए, वे भगवान् महावीर के पास प्रागये / जमालि कुछ समय पश्चात् भगवान् महाकर के पास आया / वार्तालाप हुमा / भगवान् महावीर ने उसे समझाया, पर उसने अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा। धीरे-धीरे उसके साथी उसका साथ छोड़ते गये। 2. जीवप्रादेशिकवाद एक प्रदेश भी कम हो तो जीव जीव-जीवत्वयुक्त नहीं कहा जा सकता, अतएव जिस एक–अन्तिम प्रदेश से पूर्ण होने पर जीव जीव कहलाता है, वह एक प्रदेश ही वस्तुतः जीव है / जीवप्रादेशिकवाद का यह सिद्धान्त था। इसके प्रवर्तक तिष्यगुप्ताचार्य थे।' 3. अव्यक्तकवाद-साधु आदि के सन्दर्भ में यह सारा जगत् अव्यक्त है। अमुक साधु है या देव है, ऐसा कुछ भी स्पष्टतया व्यक्त या प्रकट नहीं होता। यह अव्यक्तकवाद का सिद्धान्त है। इस वाद के प्रवर्तक प्राचार्य प्राषाढ माने जाते हैं। इस वाद के चलने के पीछे एक घटना है। प्राचार्य प्राषाढ श्वेतविका नगरी में थे। वे अपने शिष्यों को योग-साधना सिखा रहे थे। अकस्मात् उनका देहान्त हो गया। अपने प्रायुष्य-बन्ध के अनुसार वे देव हा गये / उन्होंने यह सोचकर कि उनके शिष्यों का अभ्यास अधूरा न रहे, अपने मृत शरीर में प्रवेश किया / यह सब क्षण भर में घटित हो गया। किसी को कुछ भान नहीं हुआ / शिष्यों का अभ्यास पूरा कराकर वे देवरूप में उस देह से बाहर निकले और उन्होंने श्रमणों को सारी घटना बतलाते हुए उनसे क्षमा-याचना की कि देवरूप में असंयत होते हुए भी उन्होंने संयतात्माओं से वन्दननमस्कार करवाया / यह कहकर वे अपने अभीष्ट स्थान पर चले गये / / यह देखकर श्रमणों को संदेह हुआ कि जगत् में कौन साधु है, कौन देव है, यह अव्यक्त है। उन्होंने इस एक बात को पकड़ लिया, दुराग्रह-ग्रस्त हो गये। उन श्रमणों से यह बाद चला / इस प्रकार अव्यक्तकवाद के प्रवर्तक वस्तुत: आचार्य प्राषाढ के श्रमण-शिष्य थे। 1. जीव: प्रदेश एवैको येषां मतेन ते जीवप्रदेशाः / एकेनापि प्रदेशेन न्युनो जीवो न भवत्ययो येनकेन प्रदेशेन पूर्णः सन् जीवो भवति, स एवैकः प्रदेश: जीवो भवतीत्येवंविधवादिनस्तिष्यगुप्ताचार्यमताविसंवादिनः / –औपपातिकसूत्र वृत्ति, पत्र 106 2. अव्यक्त समस्तमिदं जगत साध्वादिविषये श्रमणोऽयं देवो वाऽयमित्यादिविविक्तप्रतिभासोदयाभावात्ततश्चाव्यक्त वस्त्विति मतमस्ति येषां ते अव्यक्तिकाः, अविद्यमाना वा साध्वादिव्यक्तिरेषामित्यव्यक्तिकाः, आषाढाचार्यशिष्यमतान्तः पातिनः / -औपपातिकसूत्र वृत्ति, पत्र 106 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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