________________ 156] [औपपातिकसूत्र सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं उरिमेसु गेवेज्जेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति / तहि तेसि गई, एक्कतीसं सागरोवमाई ठिई, परलोगस्स प्रणाराहगा, सेसं तं चेव / १२२--ग्राम, प्राकर, सन्निवेश आदि में जो ये निहव होते हैं, जैसे-बहुरत, जीवप्रादेशिक, अब्यक्तिक, सामुच्छेदिक, द्वैक्रिय, त्रैराशिक तथा अबद्धिक, वे सातों ही जिन-प्रवचन--जैन-सिद्धान्त, वीतरागवाणी का अपलाप करने वाले या उलटी प्ररूपणा करनेवाले होते हैं। वे केवल चर्याभिक्षा-याचना आदि बाह्य क्रियाओं तथा लिंग-रजोहरण आदि चिह्नों में श्रमणों के सदृश होते हैं / वे मिथ्यावृष्टि हैं / असद्भाव-जिनका सद्भाव या अस्तित्व नहीं है, ऐसे अविद्यमान पदार्थों या तथ्यों की उद्भावना-निराधार परिकल्पना द्वारा, मिथ्यात्व के अभिनिवेश द्वारा अपने को, औरों को-दोनों को दुराग्रह में डालते हुए, दृढ़ करते हुए-अतथ्यपरक (जिन-प्रवचन के प्रतिकूल) संस्कार जमाते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करते हैं। श्रमण-पर्याय का पालन कर, मृत्यु-काल पाने पर देह-त्याग कर उत्कृष्ट अवेयक देवों में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है। वहाँ उनकी स्थिति इकतीस सागरोपम-प्रमाण होती है / वे परलोक के आराधक नहीं होते / अवशेष वर्णन पूर्ववत है। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में जिन सात निह्नवों का उल्लेख हमा है-- प्राचार्य अभयदेवसूरि ने अपनी वृत्ति में संक्षेप में उनकी चर्चा की है। उस सम्बन्ध में यत्र-तत्र और भी उल्लेख प्राप्त होते हैं। जिन-प्रवचन के अपलापी ये निह्नव सिद्धान्त के किसी एक देश या एकांश को लेकर हठाग्रह किंवा दुराग्रह से अभिभूत थे। उनके वादों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-- 1. बहुरतवाद-बहुत समयों में रत या आसक्त बहुरत कहे जाते थे। उनके अनुसार कार्य की निष्पन्नता बहत समयों से होती है। अतः क्रियमाण को कत नहीं कहा जा सकता। अपेक्षा-भेद पर प्राधृत अनेकान्तमय समंजस विचारधारा में बहुरतवादियों की आस्था नहीं थी। बहुरतवाद का प्रवर्तक जमालि था / वह क्षत्रिय राजकुमार था। भगवान महावीर का जामाता था। वैराग्यवश वह भगवान के पास प्रवजित हया. उसके पांच सौ सा एवं तपश्चरण पूर्वक वह श्रमण-धर्म का पालन करने लगा। एक वार उसने जनपद-विहार का विचार किया / भगवान से अनुज्ञा मांगी / भगवान् कुछ बोले नहीं। फिर भी उसने अपने पाँच सौ श्रमण-साथियों के साथ विहार कर दिया। वह श्रावस्ती में रुका। कठोर चर्या तथा तप की आराधना में लगा। एक बार वह घोर पित्तज्वर से पीड़ित हो गया। असह्य वेदना थी। उमने अपने साधुओं को बिछौना तैयार करने की आज्ञा दी। साधु वैसा करने लगे। जमालि ज्वर को वेदना से अत्यन्त व्याकुल था / क्षण-क्षण का समय बीतना भारी था। उसने अधीरता से पूछा- क्या बिछौना तैयार हो गया ? साधु बोले देवानप्रिय ! बिछौना बिछ गया है। तीव्र ज्वर-जनित आकुलता थी ही, जमालि टिक नहीं पा रहा . 1. बहुषु समयेषु रता:-प्रासक्ताः, बहुभिरेव समयः कार्य निष्पद्यते नकसमयेनेत्येवंविधवादिनो बहुरता: जमालिमतानुपातिनः / --ग्रौपपातिकसूत्र वृत्ति, पत्र 106 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org