SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चमत्कारी अम्बर परिव्राजक) [146 करता है, सो घरों में निवास करता है। गौतम ! वस्तुस्थिति यह है / इसीलिए अम्बड परिव्राजक के द्वारा काम्पित्यपुर में सौ घरों में आहार करने तथा सौ घरों में निवास करने की बात कही जाती है। ९३-पहू णं भंते ! अम्मडे परिवायए देवाणुप्पियाणं अतिए मुडे भबित्ता प्रागारामो प्रणगारियं पटवइत्तए ? ९३-भगवान् ! क्या अम्बड परिव्राजक अापके पास मुण्डित होकर-दीक्षित होकर अगारअवस्था से प्रनगार-अवस्था- महावतमय श्रमण-जीवन प्राप्त करने में समर्थ है ? ९४-णो इणठे समठे, गोयमा! अम्मडे परिवायए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव (उवलद्धपुण्णवावे, प्रासव-संवर-निज्जर-किरिया-अहिगरण-बंध-मोक्ख-कुसले, असेहज्जे, देवासुर-णागसुवण्ण-जक्ख-रक्खस-किण्णर-किपुरिस-गरल-गंधस्व-महोरगाइएहिं देवगणेहि निम्गंथाओ पावयणाम्रो अणइक्कमणिज्जे, निग्गंथे पावयणे हिस्संकिए, णिवकखिए, निस्वितिपिच्छे, लट्टे, गहियठे, पुच्छियठे, अभिगवळे, विणिच्छियठे, अट्टिमिअपेमाणरागरत्ते, अयमाउसो ! निग्गंथे पावणे अट्ठे प्रयं परमठे, सेसे प्रणठे, चाउद्दसटमुट्ठि-पुण्णमासीणीसु पडिपुण्णं पोसह सम्म अणुपालेता समणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं, वत्थपडिग्गहकबलपायपुछणेणं, प्रोसहभेसज्जेणं पाडिहारिएणं य पीढफलगसेज्जासंथारएणं पढिलाभेमाणे) अध्याणं भावेमाणे विहरइ, णवरं ऊसियफलिहे, अवंगुयदुवारे, चियत्तंतेउरघरदारपवेसी, एयं णं वुच्चइ। 94- गौतम ! ऐसा संभव नहीं है वह अनगार धर्म में दीक्षित नहीं होगा। अम्बई परिव्राजक श्रमणोपासक है, जिसने जीव, अजीव आदि पदार्थों के स्वरूप को अच्छी तरह समझ लिया है, (पुण्य और पाप का भेद जान लिया है, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण-जिसके आधार से क्रिया की जाए, बन्ध एवं मोक्ष को जो भलीभांति अवगत कर चुका है, जो किसी दूसरे की सहायता का अनिच्छुक है-प्रात्म-निर्भर है, जो देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग प्रादि देवताओं द्वार निर्ग्रन्थ-प्रवचन से अनतिक्रमणीय--न विचलित किए जा सकने योग्य है, निर्ग्रन्थ-प्रवचन में जो नि:शंक-शंका रहित, निष्कांक्ष-प्रात्मोत्थान के सिवाय अन्य आकांक्षा-रहित, निर्विचिकित्स-संशय-रहित, लब्धी -धर्म के यथार्थ तत्त्व को प्राप्त किये हुए, गृहीतार्थ---उसे ग्रहण किये हुए, पृष्टार्थ-जिज्ञासा या प्रश्न द्वारा उसे स्थिर किये हुए, अभिगतार्थ-स्वायत्त किये हुए, विनिश्चितार्थ-निश्चित रूप में प्रात्मसात् किये हुए है एवं जो अस्थि और मज्जा पर्यन्त धर्म के प्रति प्रेम व अनुराग से भरा है, जिसका यह निश्चित विश्वास है कि यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ-प्रयोजनभूत है, इसके सिवाय अन्य अनर्थ-अप्रयोजनभूत हैं, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या तथा पूर्णिमा को जो परिपूर्ण पोषध का अच्छी तरह अनुपालन करता हुमा, श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रासुक-अचित्त या निर्जीव, एषणीय-उन द्वारा स्वीकार करने योग्यनिर्दोष, अशन, पान, खाद्य, स्वाध आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-प्रोञ्छन, औषध, भेषज, प्रातिहारिक-लेकर वापस लौटा देने योग्य वस्तु पाट, बाजोट, ठहरने का स्थान, बिछाने के लिए घास आदि द्वारा श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रतिलाभित करता हुमा आत्मभावित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy