________________ 142] [औपपातिकसूत्र णं एमट्ठ अहंपिणं गोयमा / एवमाइक्खामि जाव (भासेमि) एवं परूवेमि, एवं खलु अम्मडे परिवायए जाव (कंपिल्लपुरे पयरे घरसए आहारमाहरेइ, घरसए) वसहिं उवेइ। 90 -- बहुत से लोग आपस में एक दूसरे से जो ऐसा कहते हैं, (बोलते हैं) प्ररूपित करते हैं कि अम्बड परिव्राजक काम्पिल्यपुर में सौ घरों में आहार करता है, सौ घरों में निवास करता है, यह सच है / गौतम ! मैं भी ऐसा ही कहता हूँ, (बोलता हूँ) प्ररूपित करता हूं कि अम्बड परिव्राजक यावत् (काम्पिल्यपुर नगर में एक साथ सौ घरों में प्राहार करता हैं, सो घरों में) निवास करता है। ९१-से केणठे गं भंते ! एवं बुच्चइ-अम्मडे परिवायए जाव' वसहि उवेइ ? ९१-अम्बड़ परिव्राजक के सम्बन्ध में सो घरों में आहार करने तथा सो घरों में निवास करने की जो बात कही जाती है, भगवन् ! उसमें क्या रहस्य है ? ९२--गोयमा! अम्मडस्स णं परिवायगस्स पगइमदयाए जाव (पगइउवसंतयाए, पगइपतणुकोहमाणमायालोहयाए, मिउमद्दवसंपण्णयाए प्रल्लोणयाए,) विणीययाए छठंछठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढे बाहाम्रो पगिझिय पगिज्झय सूराभिमुहस्स पायावणभूमीए पायावेमाणस्स सुभेणं परिणामेणं, पसत्यहिं अज्झवसाहि, पसत्याहि लेसाहि विसुज्झमाणीहिं अनया कयाइ तदावरणिज्जाणं कम्माणं खग्रोवसमेणं ईहावूहामगणगवेसणं करेमाणस्स वीरियलद्धीए, वेउब्वियलद्धीए, प्रोहिणाणलडीए समुप्पण्णाए जणविम्हाणहेउं कंपिल्लपुरे गगरे घरसए जाव' वहिं उवेह / से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चई---अम्मडे परिवायए कंपिल्लपुरे णगरे घरसए जाच वसहि उवेइ / ९२–गौतम ! अम्बड प्रकृति से भद्र-सौम्यव्यवहारशील–परोपकारपरायण एवं शान्त है / वह स्वभावतः क्रोध, मान, माया, एवं लोभ को प्रतनुता-हलकापन लिए हुए है इनकी उग्रता से रहित है / वह मृदुमार्दवसम्पन्न अत्यन्त कोमल स्वभावयुक्त- अहंकाररहित, पालीन-गुरुजनों का प्राज्ञापालक तथा विनयशील है। उसके बेले बेले का-दो दो दिनों का उपवास करते हुए, अपनी भुजाएँ ऊँची उठाये, सूरज के सामने मुंह किए आतापना-भूमि में प्रातापना लेते हुए तप का अनुष्ठान किया। फलतः शुभ परिणाम---पुण्यात्मक अन्तःपरिणति, प्रशस्त अध्यवसाय-उत्तम मनः संकल्प, विशुद्ध होती हुई प्रशस्त लेश्याओं-पुद्गल द्रव्य के संसर्ग से होने वाले प्रात्मपरिणामों या विचारों के कारण, उसके वीर्य-लब्धि, वैक्रिय-लब्धि तथा अवधिज्ञान-लब्धि के पावरक कर्मों का क्षयोपशम हुआ। ईहा यह क्या है, यों है या दूसरी तरह से है, इस प्रकार सत्य अर्थ के पालोचन में अभिमुख बुद्धि, अपोह---यह इसी प्रकार है, ऐसी निश्चयात्मक बुद्धि, मार्गण-अन्वयधर्मोन्मुख चिन्तन--अमुक के होने पर अमुक होता है, ऐसा चिन्तन, गवेषण व्यतिरेकधर्मोन्मुख चिन्तन-अमुक के न होने पर अमुक नहीं होता, ऐसा चिन्तन करते हुए उसको किसी दिन वीर्य-लब्धि-विशेष शक्ति, वैक्रिय-लब्धि अनेक रूप बनाने का सामर्थ्य तथा अवधिज्ञानलब्धि-अतीन्द्रिय रूपी पदार्थों को सीधे प्रात्मा द्वारा जानने की योग्यता प्राप्त हो गई। अतएव जन-विस्मापन हेतु-लोगों को पाश्चर्य-चकित करने के लिए इनके द्वारा वह काम्पिल्यपुर में एक ही समय में सौ घरों में प्राहार 1. देखें सूत्र-संख्या 90 2-3. देखें सूत्र-संख्या 90 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org