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________________ वमरकारी अम्बड परिवाजक] [141 अनशन द्वारा व्यतीत किये। वैसा कर दोषों की प्रालोचना की-उनका निरीक्षण-परीक्षण किया, उनसे प्रतिकान्त-परावृत्त हुए-हटे, समाधि-दशा प्राप्त की। मृत्यु-समय आने पर देह त्यागकर ब्रह्मलोक कल्प में वे देव रूप में उत्पन्न हुए। उनके स्थान के अनुरूप उनकी गति बतलाई गई है। उनका प्रायुष्य दश सागरोपम कहा गया है। वे परलोक के आराधक हैं। अवशेष वर्णन पहले की तरह है। . विवेचन--सूत्र संख्या 74 से 88 के अन्तर्गत जिन तापस साधक, परिव्राजक प्रादि का वर्णन है, उनके आचार-व्यवहार, जीवन-क्रम तथा साधना-पद्धति का सूक्ष्मता से परिशीलन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान महावीर के समय में, उसके आसपास साधकों के कतिपय ऐसे समुदाय भी थे, जिन्हें न तो सर्वथा वैदिक मतानुयायी कहा जा सकता है और न पूर्णत: निर्ग्रन्थपरम्परा से सम्बद्ध ही / उनके जीवन के कुछ आचार ऐसे थे-जिनका सम्बन्ध वैदिक साधना-पद्धति की किन्हीं परम्पराओं से जोड़ा जा सकता है। उनकी साधना का शौच या बाह्य शुद्धिमूलक क्रम एक ऐसा ही रूप था, जिसका सामीप्य वैदिक धर्म से है। अनशनमय घोर तप, भिक्षा-विधि, अदत्त का ग्रहण आदि कुछ ऐसी स्थितियों थीं जो जैन साधनापद्धति के सन्निकट हैं / इन साधकों में कतिपय ऐसे भी थे, जो अन्ततः जैन श्रद्धा स्वीकार कर लेते थे, जैसा अम्बड परिबाजक के शिष्यों ने किया। . प्राचार्य हरिभद्रसूरि रचित 'समराइच्च-कहा' आदि उत्तरवर्ती ग्रन्थों में भी तापस साधकों तथा परिव्राजकों की चर्चाएँ आई हैं। लगता है, साधना के क्षेत्र में एक ऐसी समन्वय-प्रधान पद्धति काफी समय तक चलती रही पर आगे चलकर वह ऐसी लुप्त हुई कि आज उन साधकों के विषय में विशेष कुछ परिज्ञात नहीं है। उनकी विचारधारा, साधना तथा सिद्धांत आदि के सम्बन्ध में न कोई स्वतन्त्र साहित्य ही प्राप्त है और न कोई अन्यविध ऐतिहासिक सामग्री ही। धर्म, अध्यात्म, साधना एवं दर्शन के क्षेत्र में अनुसन्धान-रत मनीषी, शोधार्थी, अध्ययनार्थी इस ओर ध्यान दें , गहन अध्ययन तथा गवेषणा करें, अज्ञात एवं अप्राप्त तथ्यों को प्राकट्य देने का प्रयत्न करें, यह सर्वथा वाञ्छनीय है / चमत्कारी अम्बड परिव्राजक - ८९--बहुजणे णं भंते ! अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं परुवेइ-एवं खलु अंबडे परिवायए कंपिल्लपुरे णयरे घरसए आहारमाहरेइ, घरसए धसहि उवेइ, से कहमेयं भंते ! एवं ? ... ८९-भगवन् ! बहुत से लोग एक दूसरे से प्राख्यात करते हैं--कहते हैं, भाषित करते हैंविशेष रूप से बोलते हैं, तथा प्ररूपित करते हैं ज्ञापित करते हैं--बतलाते हैं कि अम्बड परिव्राजक काम्पिल्यपुर नगर में सौ घरों में आहार करता है, सो घरों में निवास करता है। अर्थात् एक ही समय में वह सौ घरों में आहार करता हुआ तथा सौ घरों में निवास करता हुमा देखा जाता है। भगवन् ! यह कैसे है ? ९०-गोयमा ! जणं से बहुजणे अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव (एवं भासइ) एवं परुवेइ-- एवं खलु अम्मडे परिवायए कंपिल्लपुरे जाव (घरसए आहारमाहरेइ) घरसए वसहि उवेइ, सच्चे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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