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________________ 140 [औपपातिकसूत्र . हमारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक अम्बड परिव्राजक को नमस्कार हो। पहले हमने अम्बड परिव्राजक के पास-उनके साक्ष्य से स्थूल प्राणातिपात-स्थूल हिंसा, मृषावाद-असत्य, चोरी, सब प्रकार के प्रब्रह्मचर्य तथा स्थूल परिग्रह का जीवन भर के लिए प्रत्याख्यान त्याग किया था / इस समय भगवान् महावीर के साक्ष्य से हम सब प्रकार की हिंसा, सब प्रकार के असत्य, सब प्रकार की चोरी, सब प्रकार के अब्रह्मचर्य तथा सब प्रकार के परिग्रह का जीवन भर के लिए त्याग करते हैं। सब प्रकार के क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम-अप्रकट माया व लोभजनित प्रिय या रोचक भाव, द्वेष-अव्यक्त मान व क्रोधजनित अप्रिय या अप्रीति रूप भाव, कलह-लड़ाई-झगड़ा, अभ्याख्यान-मिथ्या दोषारोपण, पैशुन्य-चुगली तथा पीठ पीछे किसी के होते-अनहोते दोषों का प्रकटीकरण, परपरिवाद-निन्दा, रति-मोहनीय कर्म के उदय के परिणामस्वरूप असंयम में सुख मानना, रुचि दिखाना, अरति-मोहनीय कर्म के उदय के परिणाम-स्वरूप संयम में अरुचि 1-माया या छलपूर्वक भठ बोलना तथा मिध्यादर्शन-शल्य---मिथ्या विश्वास रूप कांटे का जीवन भर के लिए त्याग करते हैं / __ अकरणीय योग -न करने योग्य मन, वचन तथा शरीर की प्रवृत्ति-क्रिया का जीवन भर के लिए त्याग करते है। अशन–अन्नादि निष्पन्न भोज्य पदार्थ, पान-पान .—पानी, खादिम-खाद्यफल, मेवा आदि पदार्थ, स्वादिम-स्वाद्य-पान, सुपारी, इलायची आदि मुखवासकर पदार्थ-इन चारों का जीवन भर के लिए त्याग करते हैं। यह शरीर, जो इष्ट-वल्लभ, कान्त-काम्य, प्रिय-प्यारा, मनोज्ञ-सुन्दर, मनाम-मन प्रेय-अतिशय प्रिय, प्रेज्य–विशेष मान्य, स्थैर्यमयअस्थिर या विनश्वर होते हुए भी प्रज्ञानवश स्थिर प्रतीत होने वाला, वैश्वासिक-विश्वसनीय, सम्मत-अभिमत, बहुमतबहुत माना हुअा, अनुमत, गहनों की पेटी के समान प्रीतिकर है, इसे सर्दी न लग जाए, गर्मी न लग जाए, यह भूखा न रह जाए, प्यासा न रह जाय, इसे सांप न डस ले, चोर उपद्रुत न करें--- कष्ट न पहुँचाएं डांस न काटें, मच्छर न काटें, वात, पित्त, (कफ) सन्निपात आदि से जनित विविध रोगों द्वारा, तत्काल मार डालने वाली बीमारियों द्वारा यह पीड़ित न हो, इसे परिषह-भूख, प्यास आदि कष्ट, उपसर्ग-देवादि-कृत संकट न हों, जिसके लिए हर समय ऐसा ध्यान रखते हैं, उस शरीर का हम चरम-अन्तिम उच्छ्वास-नि:श्वास तक व्युत्सर्जन करते हैं-उससे अपनी ममता हटाते हैं। संलेखना द्वारा जिनके शरीर तथा कषाय दोनों ही कृश हो रहे थे, उन परिव्राजकों ने आहारपानी का परित्याग कर दिया / कटे हए वक्ष की तरह अपने शरीर को चेष्टा-शून्य बना लिया। मृत्यु की कामना न करते हुए शान्त भाव से वे अवस्थित रहे। ५८-तए णं ते परिवाया बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेंति छेदित्ता पालोइयपडिक्कता, समाहिपत्ता, कालमासे कालं किच्चा बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववण्णा / तेहि तेसि गई, दससागरोवमाई ठिई पण्णत्ता, परलोगस्स प्राराहगा. सेसं तं चैव / ८८-इस प्रकार उन परिव्राजकों ने बहत से भक्त-चारों प्रकार के आहार अनशन द्वारा छिन्न किए ---अनशन द्वारा चारों प्रकार के आहारों से सम्बन्ध तोड़ा अथवा बहुत से भोजन-काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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