________________ 144] औपपातिकसूत्र ... विशेष यह है-उच्छ्रित-स्फटिक-जिसके घर के किवाड़ों में पागल नहीं लगी रहती हो, अपावतद्वार—जिसके घर का दरवाजा कभी बन्द नहीं रहता हो, त्यक्तान्तःपुर गह द्वार प्रवेश-शिष्ट जनों के प्रावागमन के कारण घर के भीतरी भाग में उनका प्रवेश जिसे अप्रिय नहीं लगता हो-प्रस्तुत पाठ के साथ आने वाले ये तीन विशेषण यहाँ प्रयोज्य नहीं हैं. लागू नहीं होते। क्योंकि अम्बड परिव्राजक-पर्याय से श्रमणोपासक हुअा था, गृही से नहीं, वह स्वयं भिक्षु था। उसके घर था ही नहीं। ये विशेषण अन्य श्रमणोपासकों के लिए लागू होते हैं। / ९५---अम्मडस्स कंपरिक्वायगस्स थूलए पाणाइवाए पच्चवखाए जावज्जीवाए जाच (थूलए मुसावाए, थूलए अदिण्णादाणे, थूलए) परिग्गहे णवरं सब्वे मेहुणे पच्चक्खाए जावज्जीवाए। . ९५--किन्तु अम्बड परिव्राजक ने जोवनभर के लिए स्थूल प्राणातिपात -स्थूल हिंसा (स्थूल मृषावाद - स्थूल असत्य, स्थूल अदत्तादान-स्थूल चौर्य, स्थूल), परिग्रह तथा सभी प्रकार के प्रब्रह्मचर्य का प्रत्याख्यान है। ९६-अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स णो कप्पइ अखसोयप्पमाणमेतंपि जलं सयराहं उत्तरित्तए, णण्णत्थ अद्धाणगमणेणं / अम्मडस्स णं णो कप्पइ सगडं वा एवं तं चेव भाणियव्वं णण्णत्थ एगाए गंगामट्टियाए / प्रम्मडस्स गं परिव्यायगस्स णो कप्पद प्राहाकम्मिए वा, उद्देसिए वा, मीसजाए इवा, अझोयरए इ वा, पूइकम्मे इ वा, कोयगड़े इ वा, पामिच्चे इ वा, अणिसिट्ठ इ वा, प्रमिहडे इ वा, ठहत्तए वा, रइत्तए वा, कंतारभत्ते इ वा, दुभिक्खभत्ते इ वा, गिलाणभत्ते इ वा, वदलियाभत्ते इ वा, पाहणगभत्ते इवा, भोत्तए बा, पाइत्तए वा / अम्मडस्स णं परिवायगस्स णो। पणे वा जाव (कंदभोयणे, फलभोयणे, हरियभोयणे, पत्तभोयणे) बीयभोयणे वा भोत्तए वा पाइत्तए वा। ९६–अम्बड परिव्राजक को मार्गगमन के अतिरिक्त गाड़ी की धुरी-प्रमाण जल में भी शीघ्रता ने उतरना नहीं कल्पता / अम्बड परिवाजक को गाड़ी आदि पर सवार होना नहीं कल्पता। यहाँ से लेकर गंगा की मिट्टी के लेप तक का समग्र वर्णन पहले आये वर्णन के अनुरूप समझ लेना चाहिए / अम्बड परिव्राजक को आधार्मिक तथा प्रोद्देशिक-छह काय के जीवों के उपमर्दनपूर्वक साधु के निमित्त बनाया गया भोजन, मिश्रजात-साधु तथा गृहस्थ दोनों के उद्देश्य ने तैयार किया गया भोजन, अध्यवपूर-साधु के लिए अधिक मात्रा में निष्पादित भोजन, पूर्तिकर्म-आधाकर्मी आहार के अंश से मिला हुआ भोजन, क्रोतकृत-खरीदकर लिया गया भोजन, प्रामित्य-उधार लिया हुअा भोजन, अनिसृष्ट-गृह-स्वामी या घर के मुखिया को बिना पूछे दिया जाता भोजन, अभ्याहतसाधु के सम्मुख लाकर दिया जाता भोजन, स्थापित-अपने लिए पृथक् रखा हुमा भोजन, रचित-- एक विशेष प्रकार का उद्दिष्ट-अपने लिए संस्कारित भोजन, कान्तारभक्त-जंगल पार करते हुए घर से अपने पाथेय के रूप में लिया हुमा भोजन, दुर्भिक्षभक्त-दुभिक्ष के समन भिक्षुओं तथा अकालपीड़ितों के लिए बनाया हुआ भोजन, ग्लानभक्त-बीमार के लिए बनाया हुआ भोजन अथवा स्वयं बीमार होते हुए आरोग्य हेतु दान रूप में दिया जाने वाला भोजन, वादलिकभक्त-बादल आदि से घिरे दिन में दुर्दिन में दरिद्र जनों के लिए तैयार किया गया भोजन, प्राधूर्णक-भक्त-अतिथियोंपाहुनों के लिए तैयार किया हुआ भोजन अम्बड परिव्राजक को खाना-पीना नहीं कल्पता। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org