________________ है धनुर्वेद प्रभृति लौकिक शास्त्रों का मूल उद्गम स्रोत वेद हैं, यह बताने के लिए ही यह उपक्रम किया गया हो। अस्तु / अंगों का उल्लेख जिस प्रकार प्राचीन आगम ग्रन्थों में हआ है और उनकी संख्या बारह बताई है, वहाँ बारह उपांगों का उल्लेख नहीं हया है। नन्दीसूत्र में भी कालिक और उत्कालिक के रूप में उपांगों का उल्लेख है। पर बारह उपांगों के रूप में नहीं। बारह उपांगों का उल्लेख वारहवीं शताब्दी से पहले के ग्रन्थों में नहीं है। यह निविवाद है कि अंगों के रचयिता गणधर हैं और उपांगों के रचयिता विभिन्न स्थविर हैं। इसलिए अंग और उपाङ्ग का परस्पर एक दूसरे का कोई सम्बन्ध नहीं है। तथापि प्राचार्यों ने प्रत्येक अंग का एक उपांग माना है / आचार्य अभयदेव ने औपपातिक को प्राचारांग का उपांग माना है। आचार्य मलयगिरि ने राजप्रश्नीय को सूत्रकृतांग का उपांग माना है पर गहराई से अनुचिन्तन करने पर जीवाभिगम और स्थानांग का, सूर्यप्रज्ञप्ति और भगवती का, चन्द्रप्रज्ञप्ति तथा उपासकदशांग का, बण्हिदसा और दृष्टिवाद का पारस्परिक सम्बन्ध सिद्ध नहीं / इस क्रम के पीछे उस यग की क्या परिस्थितियां थीं. यह शोधार्थियों के लिए अन्वेषणीय है। सम्भव है. जब प्रागम-पुरुष की कमनीय कल्पना की गई, जहाँ उसके अंग स्थानीय आगमों की परिकल्पना और अंग सूत्रों की तत्स्थानिक प्रतिष्ठापना का प्रश्न पाया, तब यह ऋम बिठाया गया हो। अाधुनिक चिन्तकों का यह भी अभिमत है कि औपपातिक का उपांगों में प्रथम स्थान है, वह उचित नहीं है, क्योंकि ऐतिहासिक दृष्टि से प्रज्ञापना का प्रथम स्थान होना चाहिए। कारण यह है कि प्रज्ञापना के रचयिता श्यामाचार्य हैं जो महावीर निर्वाण के तीन सौ पैंतीस में युगप्रधान प्राचार्य पद पर विभूषित हुए थे। इस दृष्टि से प्रज्ञापना प्रथम उपांग होना चाहिए। हमारी दृष्टि से औपपातिक को जो प्रथम स्थान मिला है, वह उसकी कुछ मौलिक विशेषताओं के कारण ही मिला है। इसके सम्बन्ध में हम आगे की पंक्तियों में चिन्तन करेंगे। यह पूर्ण सत्य है कि आचारांग में जो विषय चचित हुए हैं, उन विषयों का विश्लेषण जसा औपपातिक में चाहिए, वैसा नहीं हया है। उपांग अंगों के पूरक और यथार्थ संगति बिठाने वाले नहीं हैं, किन्तु स्वतन्त्र विषयों का निरूपण करने बाले हैं। मुर्धन्य मनीषियों के लिए ये सारे प्रश्न चिन्तनीय हैं / औपपातिक प्रथम उपांग है। अंगों में जो स्थान प्राचारांग का है, वही स्थान उपांगों में ओपपातिक का है। प्रस्तुत प्रागम के दो अध्याय हैं। प्रथम का नाम समवसरण है और दूसरे का नाम उपपात है / द्वितीय अध्याय में उपपात सम्बन्धी विविध प्रकार के प्रश्न चचित हैं। एतदर्थी नवांगी टीकाकार प्राचार्य अभयदेव ने प्रोपपातिकवृत्ति में लिखा है-उपपात-जन्म देव और नारकियों के जन्म तथा सिद्धि-गमन का वर्णन से प्रस्तुत प्रागम का नाम औपपातिक है / विन्टरनित्ज ने औपपातिक के स्थान पर उपपादिक शब्द का प्रयोग किया है। पर औपपातिक में जो अर्थ की गम्भीरता है, वह उपपादिक शब्द में नहीं है। प्रस्तुत प्रागम का प्रारम्भिक अंश गद्यात्मक है और अंतिम अंश पद्यात्मक है / मध्य भाग में गद्य और पद्य का सम्मिश्रण है। किन्तु कुल मिला कर प्रस्तुत सूत्र का अधिकांश भाग गद्यात्मक ही है। इसमें एक ओर जहाँ राजनैतिक, सामाजिक और नागरिक तथ्यों की चर्चाएं की हैं, दूसरी ओर धार्मिक, दार्शनिक एवं सांस्कृतिक तथ्यों का भी सुन्दर प्रतिपादन हुआ है। इस आगम की यह सबसे बड़ी 10. उपपतनं उपपातो देव-नारक-जन्म सिद्धिगमनं च / अतस्तमधिकृत्य कृतमध्ययनमोपपातिकम् / -प्रोप. अभयदेव वृत्ति [ 17 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org