________________ प्राचार्य श्रीचन्द्र ने सुखबोधा समाचारी की रचना की है, जिनका समय ई. 1112 से पूर्व माना जाता है। उन्होंने प्रागम के स्वाध्याय की तपोविधि का वर्णन करते हुए अंगबाह्य के अर्थ में ही उपांग शब्द का प्रयोग किया है। प्राचार्य जिनप्रभ ने 'विधिमार्गप्रपा' ग्रन्थ की संरचना की। यह ग्रन्थ ई. 1306 में पूर्ण हुअा। प्रस्तुत अन्य में प्रागमों को स्वाध्याय-तप-विधि का वर्णन करते हुए 'इयाणि उबंगा' लिखकर जिस अंग का जो उपांग है उसका उल्लेख किया है। जिनप्रभ ने 'वायणाविही' की उत्थानिका में जो वाक्य दिया है, उसमें भी उपांग विभाग का उल्लेख पं. बेचरदासजी दोशी का अभिमत है कि चूणि साहित्य में 'उपांग' शब्द आया है। वह शब्द कहाँ-कहाँ प्राया है ? यह अन्वेषणीय है। (क)। प्राचीन वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी अंग और उपांग ग्रन्थों को कल्पना की गई है। वेदों के गम्भीर रहस्य को वेदांगों में स्पष्ट किया गया है। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, निरुक्त और ज्योतिष ये छह अंग हैं और उनकी व्याख्या करने वाले ग्रन्थ उपांग माने गये है। (ख)। वेदों के चार उपांग माने गये हैं--पुराण, न्याय, मीमांसा और धर्मशास्त्र' (ग) / चारों वेदों के समकक्ष चार उपवेदों की भी कल्पना की गई है, जो आयुर्वेद, गान्धर्ववेद, धनुर्वेद और अर्थशास्त्र के रूप में प्रसिद्ध हैं। वेदों के अंग और उपांग की कल्पना जो है, उसकी ता समझ में आती है कि उनके बिना याज्ञिक रूप से क्रियान्विति सम्भव नहीं है। अतः उनका अध्ययन पावश्यक माता, पर दार्शनिक दृष्टि से उपवेदों की कल्पना क्यों की गई ? यह स्पष्ट नहीं है। जैसे- सामवेद का सम्बन्ध गान्धर्ववेद से जोड़ा जा सकता है, वैसे अन्य वेदों की भी अन्य उपवेदों से संगति बिठाना असम्भव तो नहीं है। पर वह केवल तर्क-कौशल ही है, वाद-नैपुण्य की परिसीमा में प्राता है। उपसर्ग के साथ नि पूरकता का विशिष्ट गुण होना चाहिए। उसका उसमें अभाव है। उदाहरण के रूप में जैसे-गान्धर्व उपवेद सामवेद से निकला हुआ या उससे विकसित शास्त्र सम्भव है पर वह सामवेद का पूरक कैसे? उसके अभाव में सामवेद अपूर्ण है, यह कैसे कहा जा सकता है ? सामवेद और गान्धर्व उपवेदों की तो कुछ संगति बिठाई जा सकती है पर अन्य बेदों के साथ वह सम्भव नहीं है। यदि ऐसा किया भी गया तो वह सीधा समाधान नहीं है। सम्भव 6. सुखबोधासमाचारी पृ. 31-34. 7. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-१. प्रस्तावना --दलसुखभाई मालबणिया, पृ. 38 8. एवं कप्पतिप्पाइविहि पुरस्सरं साहू समाणियसयलजोगविही मूलग्गन्थ नन्दि-अणुप्रोगदार-उत्तरज्झयण-इसिभा सिय-अंग-उवांग-पइण्णय-छेयग्गन्थबागमेबाइज्जा ।-वायणाविहि पृ. 64 जैन सा.व.इ. प्रस्तावना, प. 40.41 9. (क) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग-१. - जैनश्रुत पृ. 30 9. (ख) छन्दः पादौ तु वेदस्य, हस्ती कल्पोऽथ पठ्यते / ज्योतिषाययनं चक्षुनिरुक्तं श्रोत्रमुच्यते / / शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य, मुखं व्याकरणं स्मृतम् / तस्मात सांगमधीत्यैवं, ब्रह्मलोके महीयते / / -~पाणिनीय शिक्षा, 41-42 9. (ग) पुराणन्यायमीमांसा धर्मशास्त्रांगमिश्रिताः / वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश / / याज्ञवल्क्य स्मृति; 1-3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org