________________ 124] [औपपातिकसूत्र देह-त्याग कर वानव्यन्तर देवलोकों में से किसी में देवरूप में उत्पन्न होती हैं। प्राप्त देव-लोक के अनुरूप उनकी गति, स्थिति तथा उत्पत्ति होती है। वहाँ उनकी स्थिति चौसठ हजार वर्षों की होती है। द्विद्रव्यादिसेवी मनुष्यों का उपपात ७३---से जे इमे गामागर जाव' संनिवेसेसु मणुया भवंति, तं जहा-दगबिइया, दगतइया, दगसत्तमा, दगएक्कारसभा, गोयम-गोवइय-गिहिधम्म-धम्मचितग-अविरुद्ध-विरुद्ध-वुड्ढ-सावगप्पभितयो, तेसि णं मणुयाणं णो कप्पंति इमानो नवरसविगइप्रो प्राहारेत्तए, तं जहा-खीरं, दहि, णवणीयं, सप्पि, तेल्लं, फाणियं, महं, मज्ज, मंसं, णो अण्णस्थ एक्काए सरिसवविगइए। तेणं मणुया अप्पिच्छा तं चेव मव्वं सवरं चउरासीइं वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता। 73. जो ग्राम तथा सन्निवेश आदि पूर्वोक्त स्थानों में मनुष्य रूप में उत्पन्न होते हैं, जो उदक द्वितीय-एक भात-खाद्य पदार्थ तथा दुसरा जल, इन दो पदार्थों का आहार रूप में सेवन करनेवाले, उदकतृतीय-भात आदि दो पदार्थ तथा तीसरे जल का सेवन करने वाले, उदकसप्तम--भात आदि छह पदार्थ तथा सातवें जल का सेवन करने वाले, उदकैकादश-भात ग्रादि दश पदार्थ तथा ग्यारहवें जल का सेवन करने वाले, गोतम-विशेष रूप से प्रशिक्षित ठिंगने बैल द्वारा विविध प्रकार के मनोरंजक प्रदर्शन प्रस्तुत कर भिक्षा मांगने वाले, गोवतिक–गो-सेवा का विशेष व्रत स्वीकार करने वाले, गहधर्मी-गहस्थधर्म--अतिथिसेवा दान आदि से सम्बद्ध गृहस्थ-धर्म को ही कल्याणकारी मानने वाले एवं उनका अनुसरण करने वाले, धर्मचिन्तक-धर्मशास्त्र के पाठक, सभासद् या कथावाचक, अविरुद्ध वैनायिक--विनयाश्रित भक्तिमार्गी, विरुद्ध-अक्रियावादी-आत्मा आदि को अस्वीकार कर बाह्य तथा प्राभ्यन्तर दृष्टियों से क्रिया-विरोधी, वृद्ध-तापस, श्रावक-धर्मशास्त्र के श्रोता, ब्राह्मण आदि, जो प्रादि. जो दध, दही, मक्खन, घत. तेल. गड, मध, मद्य तथा मांस को अपने लिए अकल्प्य अग्राह्य मानते हैं, सरसों के तेल के सिवाय इनमें से किसी का सेवन नहीं करते, जिनकी आकांक्षाएं बहुत कम होती हैं,...................................... ऐसे मनुष्य पूर्व वर्णन के अनुरूप मरकर वानव्यन्तर देव होते हैं / वहाँ उनका प्रायुष्य 84 हजार वर्ष का बतलाया गया है। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में ऐसे लोगों की चर्चा है, जो सम्यक्त्वी नहीं होते पर किन्हीं विशेष कठिन व्रतों का आचरण करते हैं, अपनी मान्यता के अनुसार अपनी विशेष साधना में लगे रहते हैं, जो कम से कम सुविधाएं और अनुकूलताएं स्वीकार करते हैं, कष्ट झेलते हैं, वे वानव्यन्तर देवों में उत्पन्न होते हैं, ऐसा बतलाया गया है। यहाँ आया हुअा गोवतिक शब्द विशेष रूप से विमर्शयोग्य है, वैदिक परम्परा में गाय को बहुत पूज्य माना गया है, उसे देव-स्वरूप कहा गया है / अतएव गो-उपासना का एक विशेष ऋम भारत में रहा है। महाकवि कालिदास ने रघुवंश के दूसरे सर्ग में इस सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन किया है। अयोध्याधिपति महाराज दिलीप के कोई सन्तान नहीं थी। उनके गुरु महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि कामधेनु की बेटी नन्दिनी की सेवा से उन्हें पुत्र-प्राप्ति होगी। राजा 1. देखें सूत्र-संख्या 71 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org