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________________ परिक्लेशवाधित नारियों का उपपात] [123 अल्प परिमाण से परितुष्ट, अल्पारंभ-अल्पसमारंभ-जीव-हिंसा एवं जीव-परितापन की न्यूनता द्वारा आजीविका चलानेवाले बहुत वर्षों का आयुष्य भोगते हुए, आयुष्य पूरा कर, मृत्यु-काल आने पर देह-त्याग कर वानव्यन्तर देवलोकों में से किसी में देवरूप में उत्पन्न होते हैं / अवशेष वर्णन पिछले सूत्र के सदृश है। केवल इतना अन्तर है-इन की स्थिति प्रायुष्यपरिमाण चौदह हजार वर्ष का होता है / परिक्लेशबाधित नारियों का उपपात ७२–से जानो इमानो गामागर जाव' संनिवेसेसु इत्थियात्रो भवंति, तं जहा- अंतो अंतेउरियानो, गयपइयानो, मयपइयाओ, बालविहवाम्रो, छड्डियल्लियामो, माइरक्खियालो, पियरक्खियानो, भायरक्खियानो, कुलघररक्खियाओ, ससुरकुलरक्खियापो, मित्तनाइनियगसंबंधिरक्खियाओ, परूढणहकेसकक्खरोमानो, ववगयधूवपुप्फगंधमल्लालंकारामो, अण्हाणगसेयजल्लमल्लपंकपरिता. वियानो, क्वगयखीर-दहि-णवणीय-सप्पि-तेल्ल-गुल-लोण-महु-मज्ज-मस-परिचत्तकयाहारापो, अप्पिच्छाओ, अप्पारंभापो, अप्पपरिग्गहायो, अप्पेणं प्रारंभणं, अपेणं समारंभेणं, अप्पेणं प्रारंभसमारंभेणं वित्ति कप्पेमाणोनो अकामबंभचेरवासेणं तामेव पइसेज्जं गाइक्कमति, ताओ णं इस्थियात्रो एयारेणं विहारेणं विहरमाणीयो बहूई वासाई (आउयं पालेंति, पालित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु वागमंतरेसु देवलोएसु देवत्ताए-उववत्तारीपो भवंति, तहि तेसिं गई, तहिं तेसि ठिई, तहि तेसि उववाए पण्णत्ते / तेसिणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा !) चउसद्धि वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता / ७२-(ये) जो ग्राम, सन्निवेश प्रादि में स्त्रियाँ होती हैं-स्त्रीरूप में उत्पन्न होती हों, जो अन्तःपुर के अन्दर निवास करती हों, जिनके पति परदेश गये हों, जिनके पति मर गये हों, जो बाल्यावस्था में ही विधवा हो गई हों, जो पतियों द्वारा परित्यक्त कर दी गई हों, जो मातृरक्षिता हों--जिनका पालन-पोषण, संरक्षण माता द्वारा होता हो, जो पिता द्वारा रक्षित हों, जो भाइयों द्वारा रक्षित हों, जो कुलगह.....पीहर द्वारा-पीहर के अभिभावकों द्वारा रक्षित हों, जो श्वसुर-कूल द्वारा--- श्वसर-कल के अभिभावकों द्वारा रक्षित हों, जो पति या पिता आदि के मित्रों, अपने हितैषियों माता, नाना आदि सम्बन्धियों, अपने सगोत्रीय देवर, जेठ आदि पारिवारिक जनों द्वारा रक्षित हों, विशेष परिष्कार-संस्कार के अभाव में जिनके नख, केश, कांख के बाल बढ़ गये हों, जो धूप (धूप, लोबान तथा सुरभित औषधियों द्वारा केश, देह आदि पर दिये जाने वाले, वासित किये जाने वाले धूएँ), पुष्प, सुगन्धित पदार्थ, मालाएँ धारण नहीं करती हों, जो अस्नान-स्नानभाव, स्वेद-पसीने, जल्ल-रज, मल्ल-सूखकर देह पर जमे हुए मैल, पंक-पसीने से मिलकर गीले हुए मैल से पारितापित-पीड़ित रहती हों, जो दूध दही मक्खन घृत तेल गुड़ नमक मधु मद्य और मांस रहित पाहार करती हों, जिनकी इच्छाएं बहुत कम हों, जिनके धन, धान्य आदि परिग्रह बहुत कम हो, जो अल्प प्रारम्भ समारंभ-बहुत कम जीव-हिंसा, जीव-परितापन द्वारा अपनी जीविका चलाती हों, अकाम-मोक्ष की अभिलाषा या लक्ष्य के बिना जो ब्रह्मचर्य का पालन करती हों, पति-शय्या का अतिक्रमण नहीं करती हों-उपपति स्वीकार नहीं करती हों-इस प्रकार के प्राचरण द्वारा जीवनयापन करती हों, वे बहुत वर्षों का प्रायुष्य भोगते हुए, आयुष्य पूरा कर, मृत्यु काल आनेपर 1. देखें सूत्र-संख्या 71 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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