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________________ 122] [औपपातिकसूत्र झंपापात कर, आग में कूदकर, जहर खाकर या ऐसे ही किसी अन्य प्रकार से प्राण त्याग देते हैं / यदि दुःख झेलते हुए, मरते हुए उनके परिणाम संक्लेशमय, तीव्र आर्त-रौद्र ध्यानमय नहीं होते, तो वे मरकर वानव्यन्तर देवों में उत्पन्न होते हैं। यों प्राण त्याग करना क्या आत्महत्या नहीं है ? अात्महत्या तो बहुत बड़ा पाप है, आत्मघाती देव कैसे होते हैं ? इत्यादि अनेक शंकाएं यहाँ खड़ी होती हैं। बात सही है, 'आत्मघाती महापापी' के अनुसार आत्महत्या घोर पाप है, नरक का हेतु है पर यहाँ जो प्रसंग वणित है, वह आत्महत्या में नहीं जाता / क्योंकि वैसे मरने वालों की भावना होती है, वह सांसारिक दुःखों से छूट नहीं पा रहा है, उसकी कामनाएं पूर्ण नहीं हो रही हैं / उसका लक्ष्य सध नहीं पा रहा है। मरना ही उसके लिए शरण है। पर, वह मरते वक्त भयाक्रान्त नहीं होता, मन में प्राकुल तथा उद्विग्न नहीं होता / वह परिणामों में अत्यधिक दढ़ता लिये रहता है। उसके भाव संक्लिष्ट नहीं होते / वह प्रात, रौद्र ध्यान में एकदम निमग्न नहीं होता। इस प्रकार उसके अकामनिर्जरा सध जाती है और वह देवयोनि प्राप्त कर लेता है। जो आत्महत्या करता है, मरते समय वह अत्यन्त कलुषित, क्लिष्ट एवं दूषित परिणामों से ग्रस्त होता है। इसीलिए वह घोर पापो कहा जाता है। वास्तव में आत्महत्या करने वाले के अन्त समय के परिणामों की धारा बड़ी जघन्य तथा निम्न कोटि की होती है। वह घोर पार्त-रौद्र-भाव में निपतित हो जाता है। वह बहुत ही शोक-विह्वल हो जाता है, संभवतः यह सोचकर कि प्राण, जिनसे बढ़ कर जगत् में कुछ भी नहीं है, जो सर्वाधिक प्रिय हैं, हाय ! उनसे वह वंचित हो रहा है। कितनी बड़ी भूल उससे हुई। ऊपर स्वयं मृत्यु स्वीकार करने वाले जिन लोगों की चर्चा है, वे अन्त समय में मन में ऐसे परिणाम नहीं लाते / भद्र प्रकृति जनों का उपपात ७१-से जे इमे गामागर जाव (णयरगिगमरायहाणिखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाह) संनिवेसेसु मणुया भवंति, तं जहा-पगइभद्दगा, पगइउवसंता, पाइपतणकोहमाणमायालोहा, मिउमद्दवसंपण्णा, अल्लोणा, विणीया, अम्मापिउसुस्सूसगा, अम्मापिईणं अणइक्कमणिज्जवयणा, अप्पिच्छा, अप्पारंभा, अपरिग्गहा, अप्पेणं प्रारंभेणं, अप्पेणं समारंभेणं, अप्पेणं प्रारंभसमारंभेणं वित्ति कप्पेमाणा बहूई वासाई पाउयं पालेंति, पालित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु तं चेव सव्वं णवरं ठिई चउद्दसवासहस्साई / ७१--(वे) जो जीव ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, द्रोणमुख, मडंब, पत्तन प्राश्रम, निगम, संवाह, सन्निवेश में मनुष्यरूप में उत्पन्न होते हैं, जो प्रकृतिभद्र--सौम्य व्यवहारशील–परोपकारपरायण, शान्त, स्वभावतः क्रोध, मान, माया एवं लोभ की प्रतनुता-हलकापन लिये हुए-इनकी उग्रता से रहित, मृदु मार्दवसम्पन्न-अत्यन्त कोमल स्वभावयुक्त-अहंकार रहित, पालीन—गुरुजन के आश्रित-आज्ञापालक, विनीत--विनयशील, माता-पिता की सेवा करने वाले, माता-पिता के वचनों का अतिक्रमण उल्लंघन नहीं करने वाले, अल्पेच्छा-बहुत कम इच्छाएँ, आवश्यकताएँ रखनेवाले, अल्पारंभ-अल्पहिसायुक्त-कम से कम हिंसा करने वाले, अल्पपरिग्रह-धन, धान्य आदि परिग्रह के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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