________________ 112] [औपपातिकसूत्र से सुशोभित होते हैं। (वे कटक, त्रुटित, अंगद, कुण्डल, कर्णाभरण आदि अलंकार धारण किये रहते हैं / वे अपने दिव्य संघात, दिव्य संस्थान, दिव्य ऋदि, दिव्य छु ति, दिव्य प्रभा, दिव्य कान्ति, दिव्य प्राभा, दिव्य तेज तथा दिव्य लेश्या द्वारा दशों दिशाओं को उद्योतित करते हैं, प्रभासित करते हैं / ) वे कल्पोपग देवलोक में देव-शय्या से युवा रूप में उत्पन्न होते हैं। वे वर्तमान में उत्तम देवगति के धारक तथा भविष्य में भद्र-कल्याण या निर्वाण रूप अवस्था को प्राप्त करने वाले होते हैं। (वे अानन्द, प्रीति, परम सौमनस्य तथा हर्षयुक्त होते हैं) असाधारण रूपवान् होते हैं। भगवान ने आगे कहा—जीव चार स्थानों-कारणों से-नैरयिक--नरक योनि का आयुष्यबन्ध करते हैं, फलत: वे विभिन्न नरकों में उत्पन्न होते हैं। वे स्थान या कारण इस प्रकार हैं-१. महाग्रारम्भ-घोर हिंसा के भाव व कर्म, 2. महापरिग्रह-अत्यधिक संग्रह के भाव व वैसा आचरण, 3. पंचेन्द्रिय-वध-मनुष्य, तिर्यंच-पशु पक्षी प्रादि पाँच इन्द्रियों वाले प्राणियों का हनन तथा 4. मांस-भक्षण / ___इन कारणों से जीव तिर्यंच-योनि में उत्पन्न होते हैं—१. मायापूर्ण निकृति-छलपूर्ण जालसाजी, 2. अलीक वचन--असत्य भाषण, 3. उत्कंचनता–ठी प्रशंसा या खुशामद अथवा किसी मूर्ख व्यक्ति को ठगने वाले धूर्त का समीपवर्ती विचक्षण पुरुष के संकोच से कुछ देर के लिए निश्चेष्ट रहना या अपनी धूर्तता को छिपाए रखना, 4. बंचनता--प्रतारणा या ठगी। इन कारणों से जीव मनुष्य-योनि में उत्पन्न होते हैं 1. प्रकृति-भद्रता- स्वाभाविक भद्रता-~-भलापन, जिससे किसी को भीति या हानि की आशंका न हो, 2. प्रकृति-धिनीतता स्वाभाविक विनम्रता, 3. सानुक्रोशता—सदयता, करुणाशीलता तथा 4. अमत्सरता-ईर्ष्या का अभाव / इन कारणों से जीव देवयोनि में उत्पन्न होते हैं 1. सरागसंयम-राग या प्रासक्तियुक्त चारित्र, 2. संयमासंयम-देशविरति-श्रावकधर्म, 3. अकाम-निर्जरा-मोक्ष की अभिलाषा के बिना या विवशनावश कष्ट सहना, 4. बाल-तपमिथ्यात्वी या अज्ञानयुक्त अवस्था में तपस्या। तत्पश्चात भगवान ने बतलाया--जो नरक में जाते हैं, वे वहाँ नैरयिकों जैसी वेदना पाते हैं। तिर्यंच योनि में गये हुए वहाँ होने वाले शारीरिक और मानसिक दुःख प्राप्त करते हैं। मनुष्यजीवन अनित्य है। उसमें व्याधि, वृद्धावस्था, मृत्यु और वेदना आदि प्रचुर कष्ट हैं / देवलोक में देव दैवी ऋद्धि और देवी सुख प्राप्त करते हैं। भगवान् ने सिद्ध, सिद्धावस्था एवं छह जीवनिकाय का विवेचन किया। जैसे-जीव बंधते हैं—कर्म-बन्ध करते हैं, मुक्त होते हैं, परिक्लेश पाते हैं। कई अप्रतिवद्ध अनासक्त व्यक्ति दुःखों का अन्त करते हैं, पीड़ा वेदना व आकुलतापूर्ण चित्तयुक्त जीव दुःख-सागर को प्राप्त करते हैं, वैराग्य प्राप्त जीव कर्म-दल को ध्वस्त करते हैं, रागपूर्वक किये गये कर्मों का फलविपाक पापपूर्ण होता है, कर्मों से सर्वथा रहित होकर जीव सिद्धावस्था प्राप्त करते हैं- यह सब (भगवान् ने) आख्यात किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org