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________________ भगवान् द्वारा धर्म-देशना] [111 व क्रोध जनित अप्रिय या अप्रीति रूप भाव, कलह-लड़ाई-भगड़ा, अभ्याख्यान--- मिथ्यादोषारोपण, पैशुन्य--चुगली तथा पीठ पीछे किसी के होते-अनहोते दोषों का प्रकटीकरण, परपरिवाद--निन्दा, रति --मोहनीय-कर्म के उदय के परिणाम स्वरूप असंयम में सुख मानना, रुचि दिखाना, अरति-मोहनीय कर्म के उदय के परिणाम-स्वरूप संयम में अरुचि रखना, मायामृषा-माया या छलपूर्वक झूठ बोलना) यावत् मिथ्यादर्शन शल्य है। प्राणातिपातविरमण-हिंसा से विरत होना, मषावादविरमण-असत्य से विरत होना, अदत्तादानविरमण-चोरी से विरत होना, मैथुनविरमण-मैथुन से विरत होना, परिग्रहविरमण-परिग्रह से विरत होना, क्रोध से विरत होना, मान से विरत होना, माया से विरत होना, लोभ से विरत होना प्रेम से विरत होना, द्वेष से विरत होना, कलह से विरत होना, अभ्याख्यान से विरत होना, पैशुन्य से विरत होना, पर-परिवाद से विरत होना, अरति-रति से विरत होना,) यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक -मिथ्या विश्वास रूप कांटे या यथार्थ ज्ञान होना, और त्यागना यह सब है सभी अस्तिभाव-अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से अस्तित्व को लिए हुए हैं / सभी नास्तिभाव-पर द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव की अपेक्षा से नहीं हैं--किन्तु वे भी अपने स्वरूप से हैं / सुचीर्ण-सुन्दर रूप में प्रशस्तरूप में संपादित दान, शील तप आदि कर्म उत्तम फल देने वाले हैं तथा दुश्चीर्ण --अप्रशस्त-पापमय कर्म अशुभ-दुःखमय फल देने वाले हैं। जीव पुण्य तथा पाप का स्पर्श करता है, बन्ध करता है। जीव उत्पन्न होते हैं-संसारी जीवों का जन्म-मरण है / कल्याणशुभ कर्म, पाप--अशुभ कर्म फल युक्त हैं, निष्फल नहीं होते। प्रकारान्तर से भगवान् धर्म का पाख्यान-प्रतिपादन करते हैं. यह निर्ग्रन्थप्रवचन, जिनशासन अथवा प्राणी की अन्तर्वर्ती ग्रन्थियों को छुड़ाने वाला प्रात्मानुशासनमय उपदेश सत्य है, अनुत्तर-सर्वोत्तम है, केवल-अद्वितीय है, अथवा केवली--सर्वज्ञ द्वारा भषित है, संशुद्ध-अत्यन्त शुद्ध, सर्वथा निर्दोष है, प्रतिपूर्ण-प्रवचन गुणों में सर्वथा परिपूर्ण हैं, नैयायिक-न्यायसंगत हैप्रमाण से अबाधित है तथा शल्य-कर्तन-~माया अादि शल्यों-काँटों का निवारक है, यह सिद्धि या सिद्धावस्था प्राप्त करने का मार्ग--उपाय है, मुक्ति कर्मरहित अवस्था या निर्लोभता का मार्ग-हेतु है, निर्वाण--सकल संताप रहित अवस्था प्राप्त कराने का पथ है, निर्याण-पुन: नहीं लौटाने वाले-जन्ममरण के चक्र में नहीं गिराने वाले गमन का मार्ग है, अवितथ--- सद्भूतार्थ-वास्तविक, अविसन्धि-- पूर्वापरविरोध से रहित तथा सब दुःखों को प्रहीण-सर्वथा क्षीण करने का मार्ग है / इसमें स्थित जीव सिद्धि-सिद्धावस्था प्राप्त करते हैं अथवा अणिमा आदि महती सिद्धियों को प्राप्त करते हैं, बुद्धज्ञानी-केवल-ज्ञानी होते हैं, मुक्त-भवोपग्राही--जन्ममरण में लाने वाले कर्माश से रहित हो जाते हैं, परिनिर्वृत होते हैं.-कर्मकृत संताप से रहित-परमशान्तिमय हो जाते हैं तथा सभी दुःखों का अन्त कर देते हैं। एकाचर्चा--जिनके एक ही मनुष्य-भव धारण करना बाकी रहा है, ऐसे भदन्त-कल्याणान्वित अथवा निर्ग्रन्थ प्रवचन के भक्त पूर्व कर्मों के बाकी रहने से किन्हीं देवलोकों में देव के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे देवलोक महद्धिक-विपुल ऋद्धियों से परिपूर्ण, (अत्यन्त द्युति, बल तथा यशोमय,) अत्यन्त सुखमय दूरंगतिक-दूर गति से युक्त एवं चिरस्थितिक--लम्बी स्थिति वाले होते हैं / वहाँ देवरूप में उत्पन्न वे जीव अत्यन्त ऋद्धिसम्पन्न (अत्यन्त द्युतिसम्पन्न, अत्यन्त बलसम्पन्न, अत्यन्त यशस्वी, अत्यन्त सुखी) तथा चिरस्थितिक-दीर्घ प्रायुष्ययुक्त होते हैं। उनके वक्षःस्थल हारों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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